देश ने कई आतंकी घटनाओं को अब तक अपना सबकुछ लुटाकर अपनी छाती पर झेला है। लेकिन मुबंई में कुछ और ही देखने को मिला। देश का सबसे बड़ा शहर बंधक बना। ये हमला पहले हुए आतंकी घटनाओं से मीलों आगे का था। ज्यादा घातक और ज्यादा डराता हुआ। कहने की ज़रुरत नहीं कि हमारी तैयारी मीलों पीछे थी। घटना के लगभग 24 घंटों बाद जो अखबारों में एक विज्ञापन छपा कि ये घटनाएं सरकार की कमज़ोरी के कारण हुई। दिल्ली के अख़बारों में छपा ये विज्ञापन देश के प्रमुख विपक्षी पार्टी ने छपवाया था। यहां भी ये कोई बड़ी बात नहीं कि देश में अभी कई राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं।
अमेरिका में आज से लगभग 8 साल पहले एक बड़ा आतंकी हमला हुआ। कई आतंकी संगठन लगातार कोशिशें करते रहे धमकियां देते रहे लेकिन कोई भी इन 8 सालों में कुछ नहीं कर सका। दुसरी तरफ हम लगातार आतंकी हमले होते रहे सिर्फ इस साल के पहले 6 महीनों की बात करें तो हम पर 64 आतंकी हमले हो चुके हैं। बदले में हर कोई दावे करने के सिवा कुछ नहीं कर सका। सत्ता से लेकर विपक्ष तक।
अमेरिका में जब नौ ग्यारह हुआ तो सारे राजनैतिक मतभेद भुला दिए गए क्या डेमोक्रेट क्या रिपब्लिकन। लेकिन हम क्या कर रहे हैं। किसे जिम्मेदार ठहरा रहे हैं किस पर आरोप लगा रहे हैं। कभी कड़े क़ानून को लेकर बहस करते हैं जिसका कोई अंत नहीं होता न ही समाधान। कोई पुलिस मुठभेड़ को फर्जी बताता है। कोई कहता है सरकार आतंक पर नर्म रुख अपना रही है। कोई आरोप लगाता है कि आतंकियों की मेहमाननवाज़ी करके भेजने वाले और विमान के कंधार सुरक्षित पहुंचाने वाले तो कोई और थे। ख़ूनी खेल को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक आतंक में बांटने की कोशिशें होती है। संघिय जांच ऐजेंसी पर भी राजनीति। पुलिस के आधुनिकिकरण पर राजनीति। हम कब वोट और कुर्सी की चिंता छोड़कर देश की चिंता करेगें। कब तक सियासी आतंकवाद का शिकार होते रहेगें ?
अमेरिका में आज से लगभग 8 साल पहले एक बड़ा आतंकी हमला हुआ। कई आतंकी संगठन लगातार कोशिशें करते रहे धमकियां देते रहे लेकिन कोई भी इन 8 सालों में कुछ नहीं कर सका। दुसरी तरफ हम लगातार आतंकी हमले होते रहे सिर्फ इस साल के पहले 6 महीनों की बात करें तो हम पर 64 आतंकी हमले हो चुके हैं। बदले में हर कोई दावे करने के सिवा कुछ नहीं कर सका। सत्ता से लेकर विपक्ष तक।
अमेरिका में जब नौ ग्यारह हुआ तो सारे राजनैतिक मतभेद भुला दिए गए क्या डेमोक्रेट क्या रिपब्लिकन। लेकिन हम क्या कर रहे हैं। किसे जिम्मेदार ठहरा रहे हैं किस पर आरोप लगा रहे हैं। कभी कड़े क़ानून को लेकर बहस करते हैं जिसका कोई अंत नहीं होता न ही समाधान। कोई पुलिस मुठभेड़ को फर्जी बताता है। कोई कहता है सरकार आतंक पर नर्म रुख अपना रही है। कोई आरोप लगाता है कि आतंकियों की मेहमाननवाज़ी करके भेजने वाले और विमान के कंधार सुरक्षित पहुंचाने वाले तो कोई और थे। ख़ूनी खेल को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक आतंक में बांटने की कोशिशें होती है। संघिय जांच ऐजेंसी पर भी राजनीति। पुलिस के आधुनिकिकरण पर राजनीति। हम कब वोट और कुर्सी की चिंता छोड़कर देश की चिंता करेगें। कब तक सियासी आतंकवाद का शिकार होते रहेगें ?