23 दिसंबर, 2008

निशान-ए-जुत्ता

निशाना लगे न लगे लेकिन ज़ख्म तो हो ही जाता है, चोट तो लग ही जाती है। क्या करें जूता तो चीज ही ऐसी है। मुंतज़ीर अल ज़ैदी का जूता भी कुछ अलग नहीं था। अफवाह तो ये भी है कि श्रीमान ज़ैदी पिछले कई दिनों से जूता निशाने पर मारने की प्रैक्टिस कर रहे थे। लेकिन लगता है उन्होंने मन लगा कर क्रिकेट नहीं खेली। अगर खेली भी तो गुरु ग्रेग जैसा कोच नहीं मिला होगा। ख़ैर, जूता तो निशाने पर नहीं लगा, लेकिन दाद देनी होगी महामहीम बुश की। इतने फुर्तीले। कानों के पास गुज़रते गुज़रते बुश साहब ने ये भी देख लिया कि जूता 10 नंबरी है। यानी, आंखें भी शरीर जितनी चपल।
अब निशाने का क्या है। लगी, लगी नहीं लगी। बात दरअसल में ये है कि जब अमेरिका का सुरक्षा विभाग पेंटागन में इराक़ पर हमला करने की योजना बना रहा था तो एक सूची बनाई गई। सूची में सबसे ऊपर उन ठिकानों का ज़िक्र था जिन पर सबसे पहले अमेरिकी बमबाज़ों को ढाहना था। सूची के अंत में इराक़ी तेल के कूएं, वहां का मशहूर संग्रहालय, अस्पताल, रिहाइशी इलाक़े वैगरह शामिल थे। लेकिन, जब अमेरिकी एफ-16 गरजे तो सबसे पहले निशाने वही इमारतें थीं जिन्हें या तो निशाना नहीं बनाना था या फिर अंत में काफी मुश्किल परिस्थितियों में नेस्तेनाबूद करना था। लेकिन हुआ बिलकुल उलटा। क्या करें हो सकता है निशाना न लगा हो। या हो सकता है कि अमेरिकी पायलटों ने हड़बड़ी में सूची उलटी पकड़ ली हो। अब क्या करें बड़े बड़े लक्ष्य को पाने के लिए छोटी मोटी क़ुर्बानियां तो देनी ही पड़ती हैं।

19 दिसंबर, 2008

ख़ुशी है या ग़म

अभी गुरुवार की ही बात है। लोकसभा में आर्थिक हालत पर हो रही चर्चा का जवाब देते हुए पी.चिदंबरम ने साफ किया कि मौजूदा विकास दर 7 फीसदी रहेगी। जो अभी हाल तक साढ़े सात फीसदी तक बताई जा रही थी। ऐसे में अचानक ही उम्मीद की कई किरणें दिखने लगी हैं। पिछले 6 सफ्ताह से कम होते होते महंगाई 7 फीसदी से भी कम पर आ गई। लगातार गिर रहा रुपया भी ड़ेढ़ महीने के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गया। दूसरी तरफ शेयर बाजार भी पीछे नहीं रहा। पांच सप्ताह में बंबई शेयर बाजार का सेंसेक्स एक बार फिर से 10 हज़ार के आंकड़े के आसपास है। पिछले जुलाई में ही आठ आठ आंसू रुलाने वाला तेल की कीमतें पिछले चार सालों में सबसे निचले स्तर पर आ गया है। पिछले दिनों ही होम लोन में भी कमी की गई है। वहीं सरकार ने भी 30 हज़ार करोड़ से भी ज्यादा का पैकेज दिया है। एक्साईज ड्यूटी यानी उत्पाद करों में भी 4 फीसदी कमी की गई है। कारों और मोटरसाइकलों की कीमतों में भारी गिरावट देखी गई है। यानी ख़ुश होने के कई मौके़। लेकिन ज़रा रुकिए। याद रखिए कि पिछले 5 सालों में पहली बार भारत की निर्यात बढ़ने की रफ्तार निगेटिव हो गई है। पिछले अक्टूबर में निर्यात 15 फीसदी तक घट गया। अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के देशों में मंदी पैदा होने से भारत के निर्यात कारोबार पर असर अब साफ दिख रहा है। क्योंकि जीडीपी में सामानों के निर्यात की हिस्सेदारी 17 फीसदी तक है। रुपए की कीमत भी इस साल 22 फीसदी कम हुई है। सरकार का ही एक सर्वेक्षण ये बताता है कि पिछले अगस्त से अक्टूबर तक मंदी के असर ने 65 हज़ार से भी ज्यादा नौकरियां छीन ली हैं।
दूसरी तरफ सरकार को घाटे की भी चिंता है। 70 हज़ार करोड़ से भी ज्यादा का किसान कर्ज माफी, छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करना उद्योगों को लगातार कई तरह के कर छूट ने सरकारी ख़जाने पर बड़ा असर डाला है। नतीजा, राजस्व और राजकोषिय घाटा नियंत्रण से बाहर ही जा रहे हैं। यानी रास्ते में सिर्फ खुशियों के फूल ही नहीं।

28 नवंबर, 2008

कब तक सियासी आतंकवाद ?

देश ने कई आतंकी घटनाओं को अब तक अपना सबकुछ लुटाकर अपनी छाती पर झेला है। लेकिन मुबंई में कुछ और ही देखने को मिला। देश का सबसे बड़ा शहर बंधक बना। ये हमला पहले हुए आतंकी घटनाओं से मीलों आगे का था। ज्यादा घातक और ज्यादा डराता हुआ। कहने की ज़रुरत नहीं कि हमारी तैयारी मीलों पीछे थी। घटना के लगभग 24 घंटों बाद जो अखबारों में एक विज्ञापन छपा कि ये घटनाएं सरकार की कमज़ोरी के कारण हुई। दिल्ली के अख़बारों में छपा ये विज्ञापन देश के प्रमुख विपक्षी पार्टी ने छपवाया था। यहां भी ये कोई बड़ी बात नहीं कि देश में अभी कई राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं।
अमेरिका में आज से लगभग 8 साल पहले एक बड़ा आतंकी हमला हुआ। कई आतंकी संगठन लगातार कोशिशें करते रहे धमकियां देते रहे लेकिन कोई भी इन 8 सालों में कुछ नहीं कर सका। दुसरी तरफ हम लगातार आतंकी हमले होते रहे सिर्फ इस साल के पहले 6 महीनों की बात करें तो हम पर 64 आतंकी हमले हो चुके हैं। बदले में हर कोई दावे करने के सिवा कुछ नहीं कर सका। सत्ता से लेकर विपक्ष तक।
अमेरिका में जब नौ ग्यारह हुआ तो सारे राजनैतिक मतभेद भुला दिए गए क्या डेमोक्रेट क्या रिपब्लिकन। लेकिन हम क्या कर रहे हैं। किसे जिम्मेदार ठहरा रहे हैं किस पर आरोप लगा रहे हैं। कभी कड़े क़ानून को लेकर बहस करते हैं जिसका कोई अंत नहीं होता न ही समाधान। कोई पुलिस मुठभेड़ को फर्जी बताता है। कोई कहता है सरकार आतंक पर नर्म रुख अपना रही है। कोई आरोप लगाता है कि आतंकियों की मेहमाननवाज़ी करके भेजने वाले और विमान के कंधार सुरक्षित पहुंचाने वाले तो कोई और थे। ख़ूनी खेल को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक आतंक में बांटने की कोशिशें होती है। संघिय जांच ऐजेंसी पर भी राजनीति। पुलिस के आधुनिकिकरण पर राजनीति। हम कब वोट और कुर्सी की चिंता छोड़कर देश की चिंता करेगें। कब तक सियासी आतंकवाद का शिकार होते रहेगें ?

23 नवंबर, 2008

पिछले दिनों वित्त मंत्री ने उद्योगपतियों को कहा कि कुछ समय के लिए अपनी कीमतें कम करें। कारण था कि मांग बढ़ सके। चिदंबरम ने ख़ासकर होटल, एयरलाइन और रियल एस्टेट के कारोबारियों और कार और दुपहिया निर्मातोओं से ये बातें कहीं। क्योंकि उद्योगपतियों और मीडीया ने इस तरह का माहौल बना दिया है कि सब के सब डरे हैं। ऐसी हालात में कोई भी कर्ज लेकर ख़रीदारी नहीं करना चाहता। इस वर्ष सात फीसदी के ज्यादा का विकास दर साफ बताता है कि बाज़ार में काफी मांग है।
लेकिन, उद्योग जगत ने चिदंबरम के सलाह को न सिर्फ नकारा उल्टे सरकार पर ही आरोप लगा दिए। उद्योगों की तरफ से कहा गया कि दाम घटाने के बजाए सरकार मांग को बढ़ाने पर ज़ोर दे।
मैं सवाल पूछता हूं कि सीआरआर में साढ़े तीन प्रतिशत, रेपो रेट में डेढ़ फीसदी और एसएलआर में एक फीसदी की कमी के बाद भी बैंक कर्ज देने को क्यों तैयार नहीं हैं। बाज़ार में लगभग दो लाख करोड़ आने के बाद भी उसका असर न तो मांग बढ़ाने पर पड़ा न तो दाम घटाने पर। बैंक पैसों पर जम कर बैठे हैं। कहा जा रहा है कि रियल ईस्टेट पर मंदी की सबसे ज्यादा मार पड़ रही है, जबकि आंकड़े इसे बिलकुल झूठ साबित करते हैं। रियल ईस्टेट का मार्जिन सितंबर,2007 में 42.3 फीसदी था जो सितंबर, 2008 में 49.6 फीसदी तक बढ़ा। इसे आप क्या कहेगें। पी. चिदंबरम ने भी कहा है कि चालू वित्त वर्ष में कंपनियां औसतन 30 फीसदी का लाभ कमा रहे हैं। अब आप ही बताएं ये कैसी मंदी है, जहां चिंता इस बात की है कि अरे मुनाफा कम हो गया। ऐसे में मार्क्स की सुपर प्रॉफिट वाली बात याद आती है।

27 अक्तूबर, 2008

इसलिए मनाएं दिवाली...

क्या आपको लगता है कि चारो तरफ मंदी की बेचैनी, इस्लामी और हिंदु आतंकवाद, संसद का ना चलना, शेयरों का गोता लगाना.... ब्ला ब्ला.... चीज़ें आपको परेशान कर रही है। हर जगह दिवाली में दिवाला का भोंपू बज रहा है। कोई कैसे मनाए दिवाली ? मैं बताता हुं क्यूं और कैसे मनाएं दिवाली। मैं तो ख़ैर अपने घर से हज़ार किलोमीटर दूर भी दिवाली मनाने के कई कारण देखता हूं। पहली काफी कम तनख्वहा मिल रही है लेकिन नौकरी सलामत है यानी पिज़्जा भले न मिले दाल रोटी सलामत है। क्या आपके साथ भी ऐसा है। मंदी तो है लेकिन बसों के टिकटों के दाम नहीं बढ़े हैं।
महंगाई की दर नीचे ही आ रही है उपर से तेल सस्ते होने की भी ख़बर है। सस्ता न भी हो तो कीमतें बढ़ेगी नहीं ये तो तय है। क्यों हैं न ये भी एक कारण ख़ुश होने का। सरकार के बड़े बड़े लोग कह रहे हैं कि मार्च आते आते महंगाई 7 फीसदी तक आ जाएगी। चलो अच्छी बात है।
आतंकवाद के नाम पर बहुत हिंदु मुस्लिम हो रहा है। चलों प्रज्ञा ठाकुर के धरे जाने के बाद सबने चैन की सांस ली है। कम से कम मेरे जैसे इंसान ने, जो इस बात पर रात दिन सोच रहा था कि हमारे मुस्लिम भाईयों को कैसा लगता होगा जब उन्हें सिर्फ और सिर्फ दाढ़ी वाले आतंकवादी के नज़र से देखा जा रहा था। अब सिक्के का दूसरा पहलू भी सबके सामने है।
कुछ लोग राजनीति को लेकर निराश हो सकते हैं। संसद का एक हफ्ते का सत्र भी ठीक से न चल सका। लेकिन, जिस तरह संसद में उत्तर भारतीयों पर हमले को लेकर सांसदों ने दबाव बनाया उसी का नतीज था कि देशमुख सरकार कदम उठाने को बाध्य हुई। वरना वो तो ये सोच सोच कर ख़ुश हो रहे थे कि चलो बाला-उद्धव ठाकरे के वोट कट रहे हैं। ये राज (गुंड़ाराज) चलने दो। संसद में सोमदा के आंसु ये बताने के लिए काफी थे कि कैसे सिद्धांतों का पहाड़ा रटने वाले वामदल अपनी सारी शक्ति सिर्फ एक व्यक्ति को टारगेट करने में लगा सकते हैं। जबकि ये संसदीय इतिहास जानता है कि कैसे इस व्यक्ति (सोमनाथ चटर्जी) ने संसदीय गरिमा को क़ायम रखने के लिए अपनी राजनैतिक करियर दांव पर लगा दिया।
शेयर बाज़ार भले ही हर रोज़ नीचे ही नीचे जाने का रिकॉर्ड बना रहा हो लेकिन भारत अभी भी 7 फीसदी से ज्यादा रफ्तार से तरक्की करने को तैयार दिखता है। कई लोगों को दलाल स्ट्रीट की मतवाली चाल ने ख़ाकपति बना दिया। कुछ ने तो आत्महत्या तक कर ली। लेकिन सोचिए, अमेरिका का हाल। आज क़रीब 10 लाख लोग सब प्राईम संकट के कारण अपना घरबार छोड़ने को मजबूर हो गए। ये लोग पार्कों में तंबू तक लगाने को मजबूर हैं। क्या हमारे लिए राहत की बात नहीं।
खेलों की बात करें तो क्रिकेट टीम ऑस्ट्रेलिया को सीरीज़ में पछाड़ने के क़रीब है तो उधर विश्वनाथन आनंद क्रेमनिक को धूल चटा विश्व चैंपियन बनने के बिलकुल पास हैं।
तो जाईये, अपनी गली और सड़क पर और सबसे बड़ा वाला बम फोड़िए चाहे कोई कुछ भी कहे। शायद ये धमाका औरों को भी जगा दे...दिवाली की शुभकामनाएं।

01 अक्तूबर, 2008

सॉरी अंकल सैम !

अमेरिकी कांग्रेस ने भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु समझौते को पास कर दिया। मनमोहन जी को बधाई हो बधाई। लेकिन, ख़ुशियां मनाने के पहले कुछ सवालों पर एक नज़र दौड़ा लें।
ऐसा क्या हुआ कि इस समझौते पर बहस के दौरान अमेरिकी संसद के सदस्य एडवर्ड मार्केय और उनकी टीम जो इस समझौते को पानी पी पी कर कोस रहे थे। अचानक से पलटी खा ली, और समझौते को अंतिम मंजूरी देने वाले बिल के समर्थन में आ गए। भारत की ऊर्जा सुरक्षा को लेकर इतनी चिंता "क्यों" ?
कांग्रेस में किसी भी बिल पर चर्चा के लिए कम से कम 30 दिनों का समय चाहिए होता है लेकिन इसमें भी भारत को छूट दी गई। "क्यों" ?
एनएसजी में कई देश आख़री वक्त तक भारत को छूट देने को लेकर विरोध करते रहे, फिर अचानक रात भर में सबकुछ बदल गया। कैसे "क्यों" ?
जब सोचता हूं, तो ऐसे कई "क्यों" अचानक से कौंधने लगते हैं।
भारत में अमेरिका से जो पिछला कारोबारी मिशन आया था उसमें एक बड़ी संख्या उन लोगों की थी जो न्युक्लियर क्षेत्र में अपना कारोबार करते हैं। ये संयोग "क्यों" ?
भारत सरकार साल 2020 तक 20 हज़ार मेगावाट बिजली उत्पादन के लक्ष्य की बात करती रही है, अब अचानक 40 हज़ार मेगावाट की बात हो रही है, "क्यों" ?
एनएसजी में छूट के बाद भारत ने परमाणु संयंत्र की ख़रीद बिक्री के लिए कई देशों से बातचीत शुरु कर दी। तभी कोंडालीजा राइस ने भारत को फटकारा। कहा कि " भारत ऐसा कुछ भी ऐसा न करे जिससे अमेरिकी कंपनियों को नुकसान हो"
मैं सोच रहा हूं, इसका क्या मतलब ? हम किसी से भी बात करें किसी से भी समझौता करें उससे मैडम कोंडालीज़ा जी और अंकल सैम को क्या मतलब ?
लो ऐसा सोचना था नहीं कि बकरा दाढ़ी डोलाते हुए अंकल सैम सपने में टपक पड़े और लगे समझाने (धमकाने)। अबे इतनी मेहनत हमने क्या दूसरों को मलाई खिलाने के लिए की है। हमारे जानकार कहते हैं कि अगले 20 सालों में परमाणु बिजली पैदा करने के लिए भारत के साथ 4 लाख करोड़ तक का कारोबार होगा। भारत में व्यापारियों की संस्था सीआईआई कहती है कि अगले पंद्रह सालों में सिर्फ 20 रियक्टर लगाने में ही 1 लाख 20 हज़ार करोड़ रुपए इधर से उधर हो जाएगें। अब बता इतने सारे "क्यों" का मतलब समझ में आया।
अंकल सैम सपने से जाते जाते ये हिदायत दे गए कि इसे ब्लॉग में मत लिखना। सॉरी अंकल सैम !

24 जून, 2008

11.05फीसदी का सच-झूठ

ये कोई भी समझ सकता है कि थोक भाव हमेशा ख़ुदरा से कम ही होता है। 11.05 फीसदी पर पहुंची महंगाई का आंकड़ा हमें और सरकार दोनों को डरा रहा है। लेकिन 11.05 फीसदी का सच क्या है ? एक आर्थिक अख़बार ने एक विशलेषण छापा कि महंगाई 11 फीसदी नहीं 25 फीसदी है। क्यों उड़ गए ना होश। जिस मद्रास्फीति की बात हो रही हैं। आज 30-35 करोड़ का मध्यवर्ग अपना 60 फीसदी ख़र्च सेवा क्षेत्र पर करता है। जैसे टेलीफोन या मोबाईल का बिल, स्कूल या कॉलेज की फीस, ईलाज पर ख़र्च या यात्राओं पर होने वाला ख़र्च। आपका बता दूं कि ये सारे ख़र्चे मुद्रास्फीति यानी महंगाई के निर्धारण करने में गिने ही नहीं जाते। यानी थोक मूल्य सूचकांक में ये खर्चे शामिल नहीं हैं। ग़रीब लोग अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा खाने पर खर्च करते हैं लेकिन थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित हमारी मुद्रास्फीति में खाने पीने की चीज़ों की भागीदारी काफी कम है। प्राथमिक चीज़ों की भागीदार वैसे तो 22 फीसदी है लेकिन उसमें भी फूड आर्टिकल की भागीदारी नाम मात्र की। जो लोग महंगाई का मुक़ाबला निवेश और बचत से करना चाहते हैं, तलवार उन भी लटक रही है। या कहें कि तलवार गर्दन पर गिर चुकी है। सामान्य समझ भी ये कहती है कि 10 फीसदी से ज्यादा महंगाई होने पर अलग अलग योजनाओं में लगे पैसे पर होने वाला फायदा न के बराबर होता है। यानी 11.05 फीसदी की सच्चाई बैंकों में जमा आपकी मेहनत की कमाई पर भी नज़र डाल चुका है। यानी सावधान!

ग़ुलामी, गिरवी और फिसलन !

बस एक सवाल? क्या हमारी पूरी सरकार और अर्थव्यवस्था तेल की कीमतों के हाथों गिरवी हो चुकी है ? वित्त मंत्री ने स्वीकार किया कि हमारी अर्थव्यवस्था एक कठिन दौर से गुज़र रही है। मुद्रास्फीति का आंकड़ा 11 फीसदी के पार जा पहुंची। इस तेज़ी के पीछे 94 फीसदी भागीदारी पेट्रोल, डीज़ल और रसोई गैस की है। एक बैरल कच्चे तेल की कीमतें 140 डॉलर के आसपास मंडरा रही है। अनुमान लगाया जा रहा है कि अक्टूबर आते आते ये 200 डॉलर तक जा सकती हैं। तब क्या होगा, तब क्या करेगी सरकार और क्या होगा महंगाई का। जानकार कहते हैं कि अगर तेल की कीमतें न बढ़ती तो ये सब न होता। यानी हम तो तेल के गुलाम हुए । लेकिन भारत की तरह एशिया और युरोप के बहुत से देश हैं जिन्हें तेल काफी मात्रा में बाहर से मंगाना पड़ता है। मगर इनमें से कहीं भी महंगाई ने ऐसा तांडव नहीं मचाया। ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, और मलेशिया इन देशों के उदाहरण हैं। हमारे पेट्रोलियम और वित्त मंत्री तेल निर्यात करने वाले देशों से गुहार करने गए कि भई तेल का उत्पादन बढ़ाओं नहीं तो हमारे विकास के सारे आंकड़े बेफजूल साबित हो जाएगें। लेकिन वो क्यों मानने लगे हमारी बात। साफ कहा गया कि मांग और आपूर्ति में ज्यादा अंतर नहीं है। कुछ दिनों पहले ही ईरानी राष्ट्रपति ने साफ कहा कि आपूर्ति का कोई संकट नहीं है, मामला बीच का है, यानी मामला सट्टेबाज़ी का है। सरकार पर सवाल है, क्यों वो पहले से नहीं चेती। क्यों आंखे बंद थी। ढ़ाई लाख करोड़ तक पहुंचा तेल कंपनियों का घाटा किसकी जेब से वसूला जाएगा।

12 जून, 2008

तब तो ओबामा हार जाएगें।

जैसे ही हिलेरी क्लिंटन की दावेदारी ख़त्म हुई वैसे ही कहा ये जाने लगा कि हिलेरी ओबामा का समर्थन करेगी। इसके बाद से ही हिलेरी के समर्थक असमंजस में हैं। अमेरिका में कई सर्वेक्षण इस तरफ इशारा कर रहे हैं कि हिलेरी को समर्थन देने वाले कई वर्ग ओबामा का समर्थन करने के मूड में नहीं है। उनका वोट सीधे रिपब्लिकन राष्ट्रपति उम्मीदवार जॉन मेक्कन को जा सकता है। इस दौड़ में सबसे आगे हैं, वो श्वेत अमेरिकी जो कामकाजी वर्ग यानी वर्किंग क्लास से आते हैं। दूसरा सबसे बड़ा वर्ग है हिलेरी को समर्थन देने वाली महिलाएं। ये महिलाएं हिलेरी के बाद अब मेक्कन की ओर देख रही हैं।
शिकागो ट्रिब्यून मैगज़ीन ने 2004 में ही छापा था कि ओबामा को इसलिए कुछ श्वेत पसंद करते हैं, क्योंकि वो पूरी तरह काली नस्ल के नहीं है। मतलब ये कि चूंकि ओबामा की मां एक अमेरिकी श्वेत और पिता अफ्रीकी, इसलिए उन्हें पूरी तरह अश्वेत नहीं माना जा सकता, लेकिन अगर वो पूरी तरह अफ्रीकी नस्ल के होते तो। आज अमेरिका में ये बहस चरम पर है कि बराक ओबामा देश की विदेश नीति और आर्थिक नीति को संभालने और आगे बढ़ाने के लिए सही आदमी नहीं है। एक बड़ा वर्ग ये प्रचारित करने में जुटा है कि अमेरिका ओबामा के हाथों में सुरक्षित नहीं है।
अगर ओबामा हारते हैं तो उसका एक बड़ा कारण होगा उनका पूरा नाम ही। यानी "बराक हुसैन ओबामा" । इस नाम में लगा हुसैन बड़ा गुल खिला सकता है। लेकिन साथ ही महाशक्ति को आज इस नाम की ज़रुरत भी है, ख़ासकर 9/11 के मुस्लिम विरोधी अभियान के बाद। अमेरिका के जाने टिप्पणीकार अपने एक लेख में लिखते हैं कि ओबामा के साथ ही नस्लवाद का अंत हो जाएगा। क्या नस्लवाद के अंत के लिए ओबामा का इंतज़ार था जिसे ख़ुद मार्टिन लूथर किंग जूनियर भी नहीं मिटा सके। अमेरिका की एक पत्रिका लिखती है कि अमेरिकी की आर्थिक मंदी, बढ़ती महंगाई, विदेशी नीति की असफलता और इराक़ जैसे घावों के बाद भी अगर रिपब्लिकन उम्मीदवार ओबामा को हरा देता है तो इसका सिर्फ एक ही कारण होगा और वो है नस्लवाद। जाने माने इतिहासकार पॉल स्ट्रीट मानते हैं कि ओबामा को नस्लवादियों का सामना करना होगा।
अंत में। क्या मैं ये साबित कर रहा हुं कि अमेरिका आज भी नस्लवादी है? अगर ऐसा है तो कुछ दूसरे तथ्यों पर नज़र डालें। वियतनाम युद्ध के दौरान मारे गए अमेरिकी अश्वेत सैनिकों की संख्या श्वेत सैनिकों के मुक़ाबले दोगुनी थी। इसी दौरान न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा, हब्शियों को वियतनाम में अपने देश के लिए अपने हिस्से की लड़ाई करने का पहली बार मौका दिया गया है। यही नहीं उन काले सैनिकों को अलग दफनाया भी गया। ये तो हुई थोड़ी पुरानी बात, कुछ नए तथ्य। आज अमरीका की कुल आबादी के 12 फ़ीसदी अफ्रीकी सभी सशस्त्र बलों में 21 फीसदी और अमेरीकी सेना में 29 फीसदी हैं, जबकि वे अमरिका की कुल आबादी का सिर्फ 12 फीसदी है। इराक़ में भी यहीं अश्वेत बलिदान देने में आगे हैं। क्या ये सिर्फ एक संयोग है। मतदान का अधिकार लेने के लिए कड़े संघर्ष के बाद आज 14 लाख अफ्रीकी अमरीकियों यानी वोट देने वाले अश्वेत लोगों की 13 फीसदी आबादी को मामूली अपराधों के कारण मताधिकार से वंचित कर दिया गया है। यानी तब तो ओबामा हार जाएगें।

04 जून, 2008

जब तलक रिश्वत न ले हम दाल गल सकती नहीं, नाव तनख़्वाह की पानी में तो चल सकती नहीं।


आज से लगभग 60 साल पहले जोश मलीहाबादी का लिखा ये शेर उनके पहले भी लागू होता था और आज भी हर्फ-ब-हर्फ लागू होता है। ये सच्ची कहानी है कि एक बाप उस दिन बहुत खु़श हुआ। जब उसके दो बेटों में से छोटा बेटा सिविल इंजीनियर बना और टेबल के नीचे के कारोबार से कुछ ही सालों में खू़ब पैसे पीट डाले। खपरैल, दो मंज़िला इमारत में तबदील हो गई। गांव भर में उसने ऐलान किया कि "ये है मेरा लायक बेटा"। अगले दिन ही बाबूजी मोटरसाइकिल के शहर निकले। गढ़ढ़ों के बीच सड़क ढ़ूंढते-ढ़ूंढते हीरोहोंडा पस्त हो गई। उसने हाई-वे पर ऐलान कि "सब साले चोर हैं, सड़क बनाने के नाम पर इंजीनियर से लेकर ठेकेदार तक जनता को धोखा दे रहे हैं। पता नहीं इस देश का क्या होगा।"
कौटिल्य ने हज़ारों साल पहले अपने अर्थशास्त्र में लिखा था कि शासन में भ्रष्टाचार 40 तरीके से अपनी जगह बनाता है। कमाल की बात है कि आज भी उनकी बात जस की तस है। तरीके बढ़ गए हों तो कह नहीं सकते। अभी इस पर शोध करना शेष है। एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था भ्रष्टाचार विरोधी उपायों के मामले में हमें 10 में से सिर्फ 3.5 (साढ़े तीन) नंबर देती है। लेकिन ख़ुश होने वाली बात ये है कि भ्रष्टाचार की इस शर्माने वाली ऊंचाई पर अकेले हम हीं नहीं खड़े बल्कि चीन, ब्राज़ील जैसे देश भी हैं। विकसित अर्थव्यवस्था में काफी ऊपर मौजूद जापान भी सबसे भ्रष्ट देशों में गिना जाता है। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में तो कई प्रधानमंत्रियों का नाम ही भ्रष्टाचार के आरोपों से साथ लिया जाता है।
मैं कहना चाह रहा था कि ये हमाम ऐसा है जहां सभी ये कह कर भी पल्ला नहीं झाड़ सकते कि ये अंदर की बात है। एक आकलन कहता है कि अगर भ्रष्टचार 1 फीसदी कम हो जाए तो विकास दर 1.5 फीसदी तक बढ़ सकती है। क्योंकि इसकी सबसे ज्यादा मार ग़रीबों पर पड़ती है। एक सर्वेक्षण तो ये भी कहता है कि ग़रीबों की 25 फीसदी कमाई घूस देने में ही चली जाती है। लेकिन ये चर्चा ही बेमानी है क्योंकि लगता है कि ये मुद्दा सुर्खियां तो बन जाती हैं, लेकिन हमें परेशान नहीं करती। हम इसे ठहराने लगे हैं। जयललिता से लेकर लालू तक को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि भ्रष्टाचारी होने का आरोप वोट कटने का कारण नहीं बनता। एक बदलाव ज़रुर आया है, और वो है आज अपना उल्लू सीधा करने के लिए सूचना के अधिकार का इस्तेमाल ख़ूब हो रहा है। अब तो इसके लिए बजाप्ता ऐजेंटी भी होने लगी है। मैं इधर सोच रहा हूं कि जब ये पूरी दुनिया में फैला है तो क्या हमें इस पर सिर खपाने की ज़रुरत है। ये तो आप ही बताएं ?

29 मई, 2008

तेल की फिसलन !

सब सांस रोके इंतज़ार कर रहे हैं कि पेट्रोल-डीज़ल के दाम आज बढ़े कि कल । बढ़ेगें तो ज़रुर। एक कमाल की बात है। एक तरफ सरकार और सरकारी तेल कंपनियां इस बात पर माथा खपा रही हैं कि बढ़ते पेट्रोलियम सब्सिडी से कैसे छुटकारा मिले। क्योंकि, चालू वित्तिय साल में ये सब्सिडी 2 लाख करोड़ के पार जा सकती है। ये राशि इतनी है कि भारत निर्माण और राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना की पूरी राशि भी बौनी साबित हो जाए। सरकारी तेल कंपनियों को हर दिन 600 करोड़ का नुकसान हो रहा है। लेकिन राजनीति ने पांव जकड़ रखे हैं। भाई, तेल के दाम कौन बढ़ाना चाहेगा, वो भी चुनावी बेला में। लेकिन मज़े की बात कि सरकार अपने राजस्व में कोई कमी करने को तैयार नहीं है। एक लीटर पेट्रोल या डीज़ल पर जो पैसे हम चुका रहे हैं, उसका लगभग 50 फीसदी सरकारों के पास कमाई के रुप में जाता है और 50 फीसदी सरकारी तेल कंपनियों के पास।
आज देश में कच्चे तेल के आने के बाद हमारी सरकारें कुल चार तरह के कर आम जनता से वसूलती है। आज भी जब महंगाई 8 फीसदी के आसपास मंडरा रही है, तब भी इन करों में कोई राहत नहीं है। चाहे आयात कर हो या सीमा शुल्क, उत्पाद शल्क हो या राज्यों के बिक्री कर। आज हमारे देश में पेट्रोलियम उत्पादों पर 32 फीसदी से ज्यादा उत्पाद शल्क वसूला जा रहा है, जबकि चीन में ये मात्र 5 फीसदी है तो पाकिस्तान में सिर्फ 2 फीसदी। इस बीच कई ख़बरें आ रही है, जैसे तेल कंपनियों के बढ़ते घाटे को कम करने के लिए आयकर और कॉरपरेट करों पर एक उपकर यानी सेस लगा दिया जाए। लेकिन क्या सरकार ऐसा जोखिम लेगी। पहले ही फरवरी में सरकार ने तेल के दाम बढ़ाए थे, लेकिन काफी कम। पिछले 8 महीने में कच्चे तेल की कीमतें 64 से 130 डॉलर प्रति बैरल तक जा चुकी हैं। लेकिन हमारे यहां कीमतें बढ़ी सिर्फ 3 से 4 फीसदी तक। ये राजनीति ही है जिसने कीमतें बढ़ने नहीं दिया है। लेकिन बकरे की अम्मा कब तक खै़र मनायेगी यही देखना है। कहीं ऐसा ना हो कि अंत में तेल की फिसलन से न आम जनता बच पाए न ही सरकार।

20 मई, 2008

अब क्या करेगी सरकार ?

मुहावरा मुंह चिढ़ाने का सही उदाहरण शायद इससे बेहतर कोई नहीं हो सकता। महंगाई का आंकड़ा जैसे-जैसे ऊपर जा रहा है वैसे-वैसे हमारे महान अर्थशास्त्री चिदंबरम साहब और प्रधानमंत्री महोदय की फ़जीहत भी नए रिकॉर्ड बना रही है। आज मुद्रास्फीति 7.83 फीसदी तक जा पहुंची है, यानी 44 महीनों में सबसे ज्यादा। दावों पर दावे लेकिन मुद्रास्फीति 8 वें पायदान पर पहुंचने का बेताब सबको चिढ़ा रहा है। कर लो जो करना है। ये महंगाई ज्यादा ख़तरनाक दिखती है। इसलिए क्योंकि सरकार के पास करने को ज्यादा कुछ बचा नहीं है। पिछले दिनों ही रिज़र्व बैंक ने बाज़ार से पैसा हटाने के लिए अपने नगद आरक्षित अनुपात में 75 बेसिस अंक तक की बढ़त की। उम्मीद थी कि बाज़ार से 26 से 29 हज़ार करोड़ रुपयों तक की तरलता कम हो जाएगी। नतीजा लोगों के पास पैसे कम होगें तो, मांग कम होगी और महंगाई पर लगाम लगेगी। सरकार ने आपूर्ति ठीक करने के दावे किए लेकिन परिणाम दिखता नहीं। जानकार चेतावनी दे रहे हैं कि महंगाई का ये सूचकांक 8 फीसदी के ऊपर जाकर रहेगा।
सरकार की इन कोशिशों को धक्का रुपए की कमज़ोरी के कारण भी लगा है। पिछले साल जहां परेशानी इस बात की थी कि रुपया ज़रुरत से ज्यादा इठला रहा था तो इस बार मामला उलटा है। चिंता का कारण पेट्रोलियम के बढ़ते दाम भी हैं। वहीं, सरकारी पेट्रोलियम कंपनियां भी बाप-बाप कर रही हैं। रुपए के कमज़ोर होने से आयात महंगा हुआ है, जिसका सीधा असर पेट्रोलियम उत्पादों पर पड़ा है। लेकिन चुनावी साल में सरकार भी बेबस बनी काग़ज काले किए जा रही है। नतीजा, सब्सिडी का बोझ सरकार पर बढ़ता जा रहा है। लग रहा है कि ये सब्सिडी का बिल जीडीपी के 5 फीसदी तक जा सकती हैं। ऐसे में एक सवाल और कि सरकार के बजटिय घाटा का क्या होगा।
महंगाई के साथ साथ एक और बात के लिए तैयार रहिए। वो है तेज़ जीडीपी रफ़्तार आपको रेंगती नज़र आ सकती है।

09 मई, 2008

मासूम बुश और मुटाते हम

हम फिल्मों में काफी पहले से देखते आ रहे हैं कि जुड़वा भाईयों के बीच इतना प्यार होता है कि एक को मारे तो दूसरे को लगे। ऐसा ही कुछ रिश्ता हमारा अमेरिका के साथ हो गया है। खाएं हम पेट दरद हो उनका। अरे, अब ये दरद नहीं है तो और क्या है। बुश साहब कहते हैं कि पूरी दुनिया की महंगाई के लिए भारत का मध्य वर्ग ज़िम्मेवार है। 35 करोड़ का विशाल भारतीय मध्य वर्ग। महाशक्ति अमेरिका की पूरी आबादी से भी बड़ा। राष्ट्रपति महोदय का कहना है कि भारत का ये वर्ग खा खाकर मुटा रहा है। लेकिन अफसोस कि उनके ही इशारे पर चलने वाले संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े उन्हें झूठा साबित करते हैं। हमारे मासूम से बुश साहब को कोई बताए कि पिछले सालों में अमेरिका में अनाज की खपत 12 फीसदी की दर से बढ़ी है जबकि हमारे यहां सिर्फ 2.5 फीसदी। अरे, सिर्फ पिछले साल की बात करें तो अमेरिका में अनाज की खपत 31 करोड़ टन से भी ज्यादा रही तो वहीं, भारत में 20 करोड़ टन से भी कम। अब क्या बताए बेचारे बुश पूरी दूनिया की फिकर उन्हें इतना सताती है कि इन छोटी मोटी बातों की तरफ उनका ध्यान ही नहीं जा पाता।
हां, बुश महाश्य को ये भी बता दें कि खु़द उनके ही देश में मक्का को बड़े पैमाने पर जैव-ईंधन के लिय इस्तेमाल किया जा रहा है। साथ ही जानकार बताते हैं कि 2010 तक अमेरिका में 30 फीसदी मक्का का इस्तेमाल एथेनॉल बनाने के लिए होगा। लेकिन अब ये तय करना होगा कि पूरी दुनिया के 80 करोड़ कार मालिकों के लिए ईंधन तैयार करने में अनाज का लगाना है या भूखमरी के शिकार 1.5 अरब लोगों का पेट भरना।

05 फ़रवरी, 2008

कहां है डबल डिजिट ग्रोथ ?

आम बजट की उलटी गिनती शुरु हो गई है। अटकलबाज़ियों का दौर भी जारी है। सब की नज़र इस पर कि इस बार श्रीमान चिदंबरम के पिटारे से क्या निकलेगा। बजट का जोड़ घटाव गुणा भाग काफी हद तक इस पर निर्भर करता है कि अर्थव्यवस्था की हालत क्या है। उद्योग और सेवा क्षेत्र जो तेज़ विकास के अगुआ बने हुए थे वो थोड़े सुस्त नज़र आ रहे हैं। इसके पीछे है कई घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय कारण। इन कारणों में रुपए की मूल्य वृद्धि और महंगाई से लेकर अमेरिकी अर्थव्यवस्था का संकट भी है।
रिज़र्व बैंक ने अपने पिछली मौद्रिक नीति की समीक्षा करते हुए कहा कि चालू वित्तिय वर्ष में सकल घरेलू उत्पादन के बढ़ने की रफ्तार 8-5 फीसदी के आसपास रह सकती है। वित्तिय वर्ष 2007---08 के पहले 6 महीने में सकल घरेलू उत्पादन 9-1 फीसदी की गति से बढ़ी जबकि इसके पहले साल यानी साल 2006---07 में ये 9-9 फीसदी की गति से बढ़ रहा था। कहा जा रहा है कि हो सकता है कि चालू वित्तिय वर्ष में जीडीपी ग्रोथ पिछले साल की तुलना में धीमी रहे। चिंता की बात ये है कि कई ऐजेंसियां विदेशी पूंजी के भी बाहर जाने की आशंका जता रही हैं। युरोपिए अमेरिकन और एशियाई अर्थव्यवस्था में मंदी की आशंकाओं के बीच भारत पर भी इसका असर दिख रहा है। दूसरी तिमाही के नतीजे भी थोड़ा निराश करते हैं। पिछले वित्तिय साल के दूसरी तिमाही में जीडीपी की बढ़त 10-2 फीसदी रही थी जो इस बार 8-9 फीसदी तक ही रहने की संभावना है। कहा जा रहा है कि अमेरिका में मंदी की आशंका से भारत के साथ साथ कई एशियाई देशों के निर्यात पर असर ज़रुर दिखेगा।

29 जनवरी, 2008

समाजवाद का अंत

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में कहा गया है कि संविधान की प्रस्तावना में आया शब्द समाजवाद मौलिक अधिकारों का हनन है। कहा गया कि संविधान की मूल प्रस्तावना में समाजवाद का ज़िक्र नहीं था। दलील ये दी जा रही है कि इसके कारण उन राजनीतिक पार्टियों को भी समाजवाद के प्रति निष्ठा जतानी पड़ती है, जो इसे सही नहीं मानते।
देखा जाए तो ये बहस नई नहीं है। आपातकाल के दौरान 1976 में 42वें संशोधन के ज़रिए संविधान की प्रस्तावना में ये शब्द जोड़ा गया। हालांकि उस समय इसका कोई विरोध नहीं हुआ। सराकर भी ऐसे फैसले ले रही थी जो कहीं ना कहीं समाजवाद की अवधारणा को बल देता था। लेकिन क्या आज इस आर्थिक उदारीकरण की पूंजीवादी व्यवस्था में अपनी प्रासंगिकता खो चुका है।
कई लोग तो यहां तक कहते हैं कि अब तो ये बहस पुरानी पड़ चुकी है। पूरी दुनिया के साथ साथ हमने भी इस पूंजीवाद के साथ साथ जीना और 9 फीसदी से ज्यादा की गति के विकास करना भी सीख लिया है।
क्या सचमुच हमने इस उदारीकरण को आत्मसात कर लिया है। ये बड़ा सवाल है। पिछले दिनों प्रकाश करात और ज्योति बसु जैसे धुरंधर मार्क्सवादियों ने ये माना कि अब समाजवाद संभव नहीं हमें विकास के लिए पूंजी चाहिए चाहे वो देसी हो या विदेशी। सोचना इस सवाल पर है कि क्या अब कल्याणकारी राज्य का सपना भी पूंजी और तेज़ औद्योगिक विकास के ज़िम्मे है।

23 जनवरी, 2008

चारों खाने सेंसेक्स


ये पहला मौका था जब शेयर बाज़ार में अफरा तफरी मची, खुद वित्तमंत्री ने बयान दिया लेकिन फिर भी बाज़ार खुलते ही सेंसेक्स की गिरावट जारी रही। ऐसा ही हुआ 22 जनवरी को। घंटों के ही कारोबार में 2273 अंकों से ज्यादा की गिरावट। कारोबार रोक देना पड़ा। हालांकि ये कुल मिलाकर चौथा मौका था जब सरकार को शेयर बाज़ार को संभालने के लिए कारोबार रोकना पड़े। 21 और 22 जनवरी वो मनहूस तारीख बन गई जब सिर्फ दो कारोबारी दिन में 10 लाख करोड़ से ज्यादा का नुकसान देखा गया। 21 हज़ार से 19 हज़ार के बीच झूल रहा संवेदी सूचकांक एक झटके में 17 हजार से भी नीचे चला गया। जिसमें 16 लाख करोड़ रुपए तक हलाल हो गए। याद कीजिए17 अक्टूबर 2007 सुबह 10 बजे बाज़ार खुला और अगले 4 मिनट में ही सेंसेक्स रिकॉर्ड 1744 अंक तक गिर गया। कारोबार रोक देना पड़ा। देखते ही देखते दो दिनों में बाज़ार से 410 मिलियन डॉलर उड़न छू। पिछले 10 साल अगर सेंसेक्स के लिए फर्श से अर्श की कहानी है तो औंधे मुंह गिरने की दास्तान भी नई नहीं है। पिछले अगस्त को ही सेंसेक्स ने गिरने के रिकॉर्ड भी अपने नाम किए। 1 अगस्त 2007 को बंबई शेयर बाज़ार का संवेदी सूचकांक 615 अंकों तक गिर गया तो उसके 15 दिनों बाद ही 16 अगस्त को सेंसेक्स ने गोता लगाते हुए 643 अंकों की गिरावट दर्ज की।ये संकट दरअसल में वैश्विक संकट है। भारतीय और अमेरिकी पूंजी बाज़ार के साथ साथ एशियाई और यूरोपीय शेयर बाज़ारों में भी गिरावट आई है। एशियाई बाज़ारों की बात करें तो जापान में टोक्यो का निक्केई सूचकांक चीन का शंघाई सुचकांक में भी औसतन 7 से 8 फीसदी तक गिरे।

14 जनवरी, 2008

कहां है हमारा आसमां !


पिछले सात-आठ सालों में संसदीय कार्यवाही और उसकी जवाबदेही पर कई सवाल उठे हैं। नतीजा ये कि संसदीय कार्यवाही एक अलग से टीवी चैनल पर "लाईव" होने के बाद भी हम अक्सर कई फैसलों से बेपरवाह रहते हैं। ये वो फैसले हैं जो धीरे धीरे ही सही लेकिन मील का पत्थर का रुप ले लेते हैं। ये मील के पत्थर सालों के जनसंघर्ष का परिणाम होते हैं। ऐसा ही एक पत्थर क़ानून की शक्ल में पिछले 1 जनवरी से लागू हुआ। ये क़ानून उन साढ़े आठ करोड़ आदिवासियों को अपनी तरह से जीने का अधिकार देता है। ये क़ानून है Forest Tribal Act यानी आदिवासी वनाधिकार क़ानून।
जल, जंगल और ज़मीन पर हो किसका हक़। ये नारा बार उठता रहा है। वो वनवासी जो सालों से जंगलों के साथ साथ जीते रहे हैं। क्या अचानक ही उन्हें पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण के नाम पर उसी जंगल का दुश्मन बताया जा सकता है। यही वो बड़ा सवाल जिसने आदिवासी वनाधिकार क़ानून की भूमिका रची।
अनुसूचित जनजाति के करोड़ो लोग सालों से जंगलों में रहते हुए वहां के संसाधनों का इस्तेमाल करते आए हैं। ये संसाधन रोज काम आने वाली चीज़े हैं, मसलन दातुन या जलावन। लेकिन इसे अब तक कोई क़ानूनी जामा नहीं पहनाया जा सका था। क्योंकि इसके रास्ते में 1980 का जंगल संरक्षण क़ानून एक बड़ी बाधा थी। 1980 में बने इस क़ानून ने एक तरह से आदिवासियों के पूरे अस्तित्व को ही कटघरे में खड़ा कर दिया था।
पिछली 1 जनवरी को आख़िरकार आदिवासी वनाधिकार क़ानून लागू कर दिया। इस कदम के बाद उन आदिवासियों को राहत मिलेगी जो 1 दिसंबर 2005 तक जंगलों की ज़मीनों पर रहते आए हैं। एक अनुमान के अनुसार इस क़ानून का फायदा लेने वालों की संख्या 1 करोड़ के आसपास है।
इस क़ानून के दायरे से 28 टाईगर रिज़र्व को बाहर रखा गया है। इससे इन टाईगर रिज़र्व में रहने वाले क़रीब 10 लाख जंगलवासियों को बेघर होना पड़ेगा। टाईगर लॉबी इस क़ानून के सख्त खिलाफ थी। उनका आरोप है कि पिछले सालों में आदिवासी पूरी तरह से बदल गए हैं। उनकी आबादी बढ़ रही है। नतीजा जंगलों और जानवरों को भारी नुकसान हो रहा है। जंगल से तस्करी में भी उनका एक बड़ा योगदान है।
एक तरफ ये कहा जा रहा था कि जंगलों और जानवरों को आदिवासियों से ही सबसे ज्यादा नुकसान होता है, जबकि सदियों से जंगलों में ही रहने वाले आदिवासी इस बात को मानने को तैयार नहीं थे। लेकिन यहां ये भी याद रखना होगा कि देश के कई इलाकों में ये आदिवासी ही हैं जिन्होंने कई हद तक पर्यावरण संतुलन भी बनाए रखा है वो जंगल और जानवरों के पूजते तक हैं। याद कीजीए राजस्थान के बिशनोई समुदाय को जिसने काले हिरण के शिकार को लेकर एक आंदोलन ही खड़ा कर दिया और सलमान ख़ान को सज़ा भी हुई।