24 जून, 2008

11.05फीसदी का सच-झूठ

ये कोई भी समझ सकता है कि थोक भाव हमेशा ख़ुदरा से कम ही होता है। 11.05 फीसदी पर पहुंची महंगाई का आंकड़ा हमें और सरकार दोनों को डरा रहा है। लेकिन 11.05 फीसदी का सच क्या है ? एक आर्थिक अख़बार ने एक विशलेषण छापा कि महंगाई 11 फीसदी नहीं 25 फीसदी है। क्यों उड़ गए ना होश। जिस मद्रास्फीति की बात हो रही हैं। आज 30-35 करोड़ का मध्यवर्ग अपना 60 फीसदी ख़र्च सेवा क्षेत्र पर करता है। जैसे टेलीफोन या मोबाईल का बिल, स्कूल या कॉलेज की फीस, ईलाज पर ख़र्च या यात्राओं पर होने वाला ख़र्च। आपका बता दूं कि ये सारे ख़र्चे मुद्रास्फीति यानी महंगाई के निर्धारण करने में गिने ही नहीं जाते। यानी थोक मूल्य सूचकांक में ये खर्चे शामिल नहीं हैं। ग़रीब लोग अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा खाने पर खर्च करते हैं लेकिन थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित हमारी मुद्रास्फीति में खाने पीने की चीज़ों की भागीदारी काफी कम है। प्राथमिक चीज़ों की भागीदार वैसे तो 22 फीसदी है लेकिन उसमें भी फूड आर्टिकल की भागीदारी नाम मात्र की। जो लोग महंगाई का मुक़ाबला निवेश और बचत से करना चाहते हैं, तलवार उन भी लटक रही है। या कहें कि तलवार गर्दन पर गिर चुकी है। सामान्य समझ भी ये कहती है कि 10 फीसदी से ज्यादा महंगाई होने पर अलग अलग योजनाओं में लगे पैसे पर होने वाला फायदा न के बराबर होता है। यानी 11.05 फीसदी की सच्चाई बैंकों में जमा आपकी मेहनत की कमाई पर भी नज़र डाल चुका है। यानी सावधान!

ग़ुलामी, गिरवी और फिसलन !

बस एक सवाल? क्या हमारी पूरी सरकार और अर्थव्यवस्था तेल की कीमतों के हाथों गिरवी हो चुकी है ? वित्त मंत्री ने स्वीकार किया कि हमारी अर्थव्यवस्था एक कठिन दौर से गुज़र रही है। मुद्रास्फीति का आंकड़ा 11 फीसदी के पार जा पहुंची। इस तेज़ी के पीछे 94 फीसदी भागीदारी पेट्रोल, डीज़ल और रसोई गैस की है। एक बैरल कच्चे तेल की कीमतें 140 डॉलर के आसपास मंडरा रही है। अनुमान लगाया जा रहा है कि अक्टूबर आते आते ये 200 डॉलर तक जा सकती हैं। तब क्या होगा, तब क्या करेगी सरकार और क्या होगा महंगाई का। जानकार कहते हैं कि अगर तेल की कीमतें न बढ़ती तो ये सब न होता। यानी हम तो तेल के गुलाम हुए । लेकिन भारत की तरह एशिया और युरोप के बहुत से देश हैं जिन्हें तेल काफी मात्रा में बाहर से मंगाना पड़ता है। मगर इनमें से कहीं भी महंगाई ने ऐसा तांडव नहीं मचाया। ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, और मलेशिया इन देशों के उदाहरण हैं। हमारे पेट्रोलियम और वित्त मंत्री तेल निर्यात करने वाले देशों से गुहार करने गए कि भई तेल का उत्पादन बढ़ाओं नहीं तो हमारे विकास के सारे आंकड़े बेफजूल साबित हो जाएगें। लेकिन वो क्यों मानने लगे हमारी बात। साफ कहा गया कि मांग और आपूर्ति में ज्यादा अंतर नहीं है। कुछ दिनों पहले ही ईरानी राष्ट्रपति ने साफ कहा कि आपूर्ति का कोई संकट नहीं है, मामला बीच का है, यानी मामला सट्टेबाज़ी का है। सरकार पर सवाल है, क्यों वो पहले से नहीं चेती। क्यों आंखे बंद थी। ढ़ाई लाख करोड़ तक पहुंचा तेल कंपनियों का घाटा किसकी जेब से वसूला जाएगा।

12 जून, 2008

तब तो ओबामा हार जाएगें।

जैसे ही हिलेरी क्लिंटन की दावेदारी ख़त्म हुई वैसे ही कहा ये जाने लगा कि हिलेरी ओबामा का समर्थन करेगी। इसके बाद से ही हिलेरी के समर्थक असमंजस में हैं। अमेरिका में कई सर्वेक्षण इस तरफ इशारा कर रहे हैं कि हिलेरी को समर्थन देने वाले कई वर्ग ओबामा का समर्थन करने के मूड में नहीं है। उनका वोट सीधे रिपब्लिकन राष्ट्रपति उम्मीदवार जॉन मेक्कन को जा सकता है। इस दौड़ में सबसे आगे हैं, वो श्वेत अमेरिकी जो कामकाजी वर्ग यानी वर्किंग क्लास से आते हैं। दूसरा सबसे बड़ा वर्ग है हिलेरी को समर्थन देने वाली महिलाएं। ये महिलाएं हिलेरी के बाद अब मेक्कन की ओर देख रही हैं।
शिकागो ट्रिब्यून मैगज़ीन ने 2004 में ही छापा था कि ओबामा को इसलिए कुछ श्वेत पसंद करते हैं, क्योंकि वो पूरी तरह काली नस्ल के नहीं है। मतलब ये कि चूंकि ओबामा की मां एक अमेरिकी श्वेत और पिता अफ्रीकी, इसलिए उन्हें पूरी तरह अश्वेत नहीं माना जा सकता, लेकिन अगर वो पूरी तरह अफ्रीकी नस्ल के होते तो। आज अमेरिका में ये बहस चरम पर है कि बराक ओबामा देश की विदेश नीति और आर्थिक नीति को संभालने और आगे बढ़ाने के लिए सही आदमी नहीं है। एक बड़ा वर्ग ये प्रचारित करने में जुटा है कि अमेरिका ओबामा के हाथों में सुरक्षित नहीं है।
अगर ओबामा हारते हैं तो उसका एक बड़ा कारण होगा उनका पूरा नाम ही। यानी "बराक हुसैन ओबामा" । इस नाम में लगा हुसैन बड़ा गुल खिला सकता है। लेकिन साथ ही महाशक्ति को आज इस नाम की ज़रुरत भी है, ख़ासकर 9/11 के मुस्लिम विरोधी अभियान के बाद। अमेरिका के जाने टिप्पणीकार अपने एक लेख में लिखते हैं कि ओबामा के साथ ही नस्लवाद का अंत हो जाएगा। क्या नस्लवाद के अंत के लिए ओबामा का इंतज़ार था जिसे ख़ुद मार्टिन लूथर किंग जूनियर भी नहीं मिटा सके। अमेरिका की एक पत्रिका लिखती है कि अमेरिकी की आर्थिक मंदी, बढ़ती महंगाई, विदेशी नीति की असफलता और इराक़ जैसे घावों के बाद भी अगर रिपब्लिकन उम्मीदवार ओबामा को हरा देता है तो इसका सिर्फ एक ही कारण होगा और वो है नस्लवाद। जाने माने इतिहासकार पॉल स्ट्रीट मानते हैं कि ओबामा को नस्लवादियों का सामना करना होगा।
अंत में। क्या मैं ये साबित कर रहा हुं कि अमेरिका आज भी नस्लवादी है? अगर ऐसा है तो कुछ दूसरे तथ्यों पर नज़र डालें। वियतनाम युद्ध के दौरान मारे गए अमेरिकी अश्वेत सैनिकों की संख्या श्वेत सैनिकों के मुक़ाबले दोगुनी थी। इसी दौरान न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा, हब्शियों को वियतनाम में अपने देश के लिए अपने हिस्से की लड़ाई करने का पहली बार मौका दिया गया है। यही नहीं उन काले सैनिकों को अलग दफनाया भी गया। ये तो हुई थोड़ी पुरानी बात, कुछ नए तथ्य। आज अमरीका की कुल आबादी के 12 फ़ीसदी अफ्रीकी सभी सशस्त्र बलों में 21 फीसदी और अमेरीकी सेना में 29 फीसदी हैं, जबकि वे अमरिका की कुल आबादी का सिर्फ 12 फीसदी है। इराक़ में भी यहीं अश्वेत बलिदान देने में आगे हैं। क्या ये सिर्फ एक संयोग है। मतदान का अधिकार लेने के लिए कड़े संघर्ष के बाद आज 14 लाख अफ्रीकी अमरीकियों यानी वोट देने वाले अश्वेत लोगों की 13 फीसदी आबादी को मामूली अपराधों के कारण मताधिकार से वंचित कर दिया गया है। यानी तब तो ओबामा हार जाएगें।

04 जून, 2008

जब तलक रिश्वत न ले हम दाल गल सकती नहीं, नाव तनख़्वाह की पानी में तो चल सकती नहीं।


आज से लगभग 60 साल पहले जोश मलीहाबादी का लिखा ये शेर उनके पहले भी लागू होता था और आज भी हर्फ-ब-हर्फ लागू होता है। ये सच्ची कहानी है कि एक बाप उस दिन बहुत खु़श हुआ। जब उसके दो बेटों में से छोटा बेटा सिविल इंजीनियर बना और टेबल के नीचे के कारोबार से कुछ ही सालों में खू़ब पैसे पीट डाले। खपरैल, दो मंज़िला इमारत में तबदील हो गई। गांव भर में उसने ऐलान किया कि "ये है मेरा लायक बेटा"। अगले दिन ही बाबूजी मोटरसाइकिल के शहर निकले। गढ़ढ़ों के बीच सड़क ढ़ूंढते-ढ़ूंढते हीरोहोंडा पस्त हो गई। उसने हाई-वे पर ऐलान कि "सब साले चोर हैं, सड़क बनाने के नाम पर इंजीनियर से लेकर ठेकेदार तक जनता को धोखा दे रहे हैं। पता नहीं इस देश का क्या होगा।"
कौटिल्य ने हज़ारों साल पहले अपने अर्थशास्त्र में लिखा था कि शासन में भ्रष्टाचार 40 तरीके से अपनी जगह बनाता है। कमाल की बात है कि आज भी उनकी बात जस की तस है। तरीके बढ़ गए हों तो कह नहीं सकते। अभी इस पर शोध करना शेष है। एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था भ्रष्टाचार विरोधी उपायों के मामले में हमें 10 में से सिर्फ 3.5 (साढ़े तीन) नंबर देती है। लेकिन ख़ुश होने वाली बात ये है कि भ्रष्टाचार की इस शर्माने वाली ऊंचाई पर अकेले हम हीं नहीं खड़े बल्कि चीन, ब्राज़ील जैसे देश भी हैं। विकसित अर्थव्यवस्था में काफी ऊपर मौजूद जापान भी सबसे भ्रष्ट देशों में गिना जाता है। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में तो कई प्रधानमंत्रियों का नाम ही भ्रष्टाचार के आरोपों से साथ लिया जाता है।
मैं कहना चाह रहा था कि ये हमाम ऐसा है जहां सभी ये कह कर भी पल्ला नहीं झाड़ सकते कि ये अंदर की बात है। एक आकलन कहता है कि अगर भ्रष्टचार 1 फीसदी कम हो जाए तो विकास दर 1.5 फीसदी तक बढ़ सकती है। क्योंकि इसकी सबसे ज्यादा मार ग़रीबों पर पड़ती है। एक सर्वेक्षण तो ये भी कहता है कि ग़रीबों की 25 फीसदी कमाई घूस देने में ही चली जाती है। लेकिन ये चर्चा ही बेमानी है क्योंकि लगता है कि ये मुद्दा सुर्खियां तो बन जाती हैं, लेकिन हमें परेशान नहीं करती। हम इसे ठहराने लगे हैं। जयललिता से लेकर लालू तक को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि भ्रष्टाचारी होने का आरोप वोट कटने का कारण नहीं बनता। एक बदलाव ज़रुर आया है, और वो है आज अपना उल्लू सीधा करने के लिए सूचना के अधिकार का इस्तेमाल ख़ूब हो रहा है। अब तो इसके लिए बजाप्ता ऐजेंटी भी होने लगी है। मैं इधर सोच रहा हूं कि जब ये पूरी दुनिया में फैला है तो क्या हमें इस पर सिर खपाने की ज़रुरत है। ये तो आप ही बताएं ?