20 मार्च, 2014

ख़तरनाक है धर्म और राजनीति का घालमेल

दंगों की सबसे भयावह परिणती मौत नहीं, बल्कि वो हालात हैं जो किसी के मौत का कारण बनते हैं। मौत और किसी को मारने की हद जाने की भावना का पैदा लेना और उसे उसी क्रूरता से अंजाम देने का कारण बन जाता है किसी के किसी ख़ास धर्म का होना। यानी एक धर्म का व्यक्ति दूसरे को दुशमनी के कारण नहीं मारता बल्कि इसलीए मारता है, क्योंकि वो उसके धर्म का नहीं। घृणा और नफरत की आग बिना किसी तर्क के सबको जलाने को आतुर। देश जब आज़ाद हुआ था तो विदेशों के कई बुद्धिजीवी जी भरकर इस आशंका को पोषित कर रहे थे कि भारतवर्ष अपनी विविधता के जंजाल में उलझकर एक असफल राष्ट्र साबित होगा। भगत सिंह इस आशंका को पहले ही भांपते हुए इशारा करते हैं कि धर्मिक दायरों का संकरापन हिंदुस्तान के विचार को उड़ने के रोक सकता है। वो सवाल मज़हबी कठमुल्लाओं की तरफ उठाते हैं और ज़ोर देते हैं कि भावनाओं की रौं में बह जाना वो भी अपनी स्वीकार्यता और दबदबे की स्थापना की लालच में एक बड़ी खाई का निर्माण कर रहा है। भारतीय राजनीति में एक नारा पिछले लगभग 9 सालों से हवा में कुछ ज्यादा ही प्रमुखता से इधर-उधर बह रही है, वो है विकास की। विकास विकास और विकास, लेकिन ये कितना सच है। राजनीति में धर्म की घुसपैठ को भगत सिंह सीधे सांप्रदायिकता से जोड़ते हैं, और अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि जहां सांप्रदायिकता के तत्व हावी होते हैं वहां साम्राज्यवाद अपने आप आ जाता है। सांप्रदायिकता अपने निजी हित के लिए साम्राज्यवाद का समर्थक होता है, या कहें कि उसकी अगली कड़ी साम्राज्यवाद है। लेकिन क्या आज हमें किसी साम्राज्यवाद का डर है? जी हां, यहीं सवाल आज भगत सिंह को हमारे क़रीब ले आता है। जब जब दक्षिणपंथ और उसकी राजनीति की बात आती है, तब तब साथ में ही पूंजी के अधिकार या कहें पूंजी के वर्चस्व की बात आती है। उदार आर्थिक व्यवस्था अपने आप में विविधता का चेहरा रखता है, लेकिन पर्दे के पीछे पूंजी का खेल होता है। ज्यादा मौके और ज्यादा प्रतिस्पर्धा बस नाम के रह जाते हैं, क्योंकि छोटी मछली बड़ी के आगे टिकती नहीं। पूंजी और पूंजीवादी सत्ता को अपना दास तो काफी पहले ही बना चुका होता है। भगत सिंह आज से लगभग 80-90 साल पहले दंगों के विशलेषण में स्वराज और आज़ादी की राजनीति की खाल के पीछे झांकते हुए चेताते हैं कि ‘जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं. और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है’। आज प्रधानमंत्री का एक उम्मीदवार सरे आम दंगों के आरोपियों को बड़े से समारोह में सम्मानित करता है। आरोपी मुजरिम नहीं भी हो सकते हैं, लेकिन संदेश क्या है? तस्वीर क्या है? बड़ा पेड़ और हिलती धरती और कटते लोग। क्या चमड़ी के पीछे का गूदा एक जैसा नहीं है, क्या दिवाला पिटा नहीं है। भगत सिंह नारा देते हैं ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’। उनका और उनके साथियों का साफ मानना था कि आंदोलन के नारे स्पष्ट और संप्रदायों के दायरों से बाहर होने चाहिए, ख़ासकर ऐसे समाज में जहां धार्मिक और सामाजिक विविधता उसकी शक्ति सामर्थ्य हो। भगत सिंह का मानना था कि उस समय के कांग्रेस में अलग गुटों ने अपने अलग अलग नारे बनाए थे। कोई गुट ‘हर हर महादेव’ करता तो कोई ‘नारा-ए-तकबीर अल्लाह-ओ-अकबर’ या फिर ‘सत्श्रीआकाल’। समस्या यहां नहीं है। समस्या है एक लक्ष्य की प्राप्ति को लेकर चलने वाले समूह की स्पष्टता और एकजुटता। इसीलिए वो कहते हैं ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’।