देखा जाए तो ये बहस नई नहीं है। आपातकाल के दौरान 1976 में 42वें संशोधन के ज़रिए संविधान की प्रस्तावना में ये शब्द जोड़ा गया। हालांकि उस समय इसका कोई विरोध नहीं हुआ। सराकर भी ऐसे फैसले ले रही थी जो कहीं ना कहीं समाजवाद की अवधारणा को बल देता था। लेकिन क्या आज इस आर्थिक उदारीकरण की पूंजीवादी व्यवस्था में अपनी प्रासंगिकता खो चुका है।
कई लोग तो यहां तक कहते हैं कि अब तो ये बहस पुरानी पड़ चुकी है। पूरी दुनिया के साथ साथ हमने भी इस पूंजीवाद के साथ साथ जीना और 9 फीसदी से ज्यादा की गति के विकास करना भी सीख लिया है।
क्या सचमुच हमने इस उदारीकरण को आत्मसात कर लिया है। ये बड़ा सवाल है। पिछले दिनों प्रकाश करात और ज्योति बसु जैसे धुरंधर मार्क्सवादियों ने ये माना कि अब समाजवाद संभव नहीं हमें विकास के लिए पूंजी चाहिए चाहे वो देसी हो या विदेशी। सोचना इस सवाल पर है कि क्या अब कल्याणकारी राज्य का सपना भी पूंजी और तेज़ औद्योगिक विकास के ज़िम्मे है।