पिछले दिनों एक हिंदी न्यूज़ चैनल पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) का प्रवक्ता एंकर के सवालों को झेल रहा था। मुद्दा था अभिनेत्री रेखा को मिलने वाले एक पुरस्कार को लेकर मनसे का विरोध। मनसे का युवा प्रवक्ता किसी तरह अपने को सही साबित करने की कोशिश कर रहा था, तभी एंकर का दनदनाता सवाल आया कि आप क्यों रेखा के पीछे पड़े हैं महाराष्ट्र के विदर्भ जाकर आत्महत्या करने वाले किसानों के लिए कुछ क्यों नहीं करते। इससे पहले कि मनसे प्रवक्ता कोई जवाब दे पाता ब्रेक का समय हो चुका था। हालांकि पहली नज़र में मुझे एंकर का ये सवाल बिना संदर्भ का लगा लेकिन विदर्भ, किसानों की आत्महत्या, कालाहांडी में भूख मिटाने के लिए अपने दुधमुहे को बेचना। इस तरह की सामाजिक सरोकार वाले सवाल तथाकथित मुख्य धारा कि इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के लिए फैशन या कहें कि दिखावा बन गए हैं। क्योंकि ये टीआरपी दिला नहीं सकते। लेकिन क्या उस समाज में भी ये मुद्दा है या नहीं जहां से ये पैदा हुए हैं। आम चुनाव के सिलसिले में पिछले दिनों महाराष्ट्र के विदर्भ जाने का मौका मिला। इसी सामाजिक सरोकार का मारा मैं था सो बड़ा रोमांचित था कि उस इलाकें में स्टोरी की कोई कमी नहीं होगी जहां पिछले 4-5 सालों में साढ़े तीन हज़ार किसानों ने आत्महत्या की हो। अकोला, अमरावती, यवतमाल, बुलढाणा जैसे इलाकों के गांवों में गया किसानों की कहानियां ढूंढने, लेकिन आश्चर्य कि ये मुद्दा न तो चुनावों में था न ही लोगों के बीच। बुलढाणा के एक गांव चिखली गया जहां कई आत्महत्यायें हो चुकी थीं। मैंने कई गांव वाले से पूछा कि आत्महत्या मुद्दा क्यों नहीं है। जवाब मिला कि सारे उम्मीदवार तो अपने हैं मरने वाले भी अपने ही हैं तो मुद्दा कैसे बने, क्या ज़रुरत है मुद्दा बनाने की एक लाख मुआवज़ा मिलना था मिल गया। जब इसका मतलब ढूंढा तो पता चला कि ये इलाका कुन्बी मराठा समुदाय का है, जहां दोनों मुख्य उम्मीदवार उसी समुदाय के हैं, ज्यादातर मतदाता उसी समुदाय के तो सब अपने ही हैं। यानी मुद्दा ख़त्म। मुद्दा नहीं तो स्टोरी कैसे करुं।
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