21 अगस्त, 2009

"नाखून क्यों बढ़ते हैं"

कल दिल्ली में भारी बारिश हुई, इतनी कि.... कितने विशाल पेड़ और खम्भे भूमिशायी हो गए। सड़क पर जाम में फंसे फंसे बड़ी कोफ्त हो रही थी, समझ नहीं आ रहा था कि थोड़ी बूंदाबांदी हो या मूसलाधार बारिश सड़कें फट से जाम हो जाती हैं। चौराहों, गलियों, तिराहा सब जगह गाड़ियां फंसी हुई। हर कोई सबके ऊपर से निकल जाना चाहता था। ट्रैफिक सिगनल खराब तो थे ही। लेकिन बारिश ने जैसे मेरी ही तरह सबको गुस्से से भर दिया था। इतना गुस्सा कि मेरी दोपहिया, एक कार वाले से बस "छुआ" ही था कि वो उबल पड़ा मेरे ऊपर। यहां तक कि जाम खुलने के बाद भी अपनी गाड़ी मेरे आगे पीछे करता रहा जैसे वो मुझे मार देने को ऊतारु हो। मैं सोच रहा था कि इतने "छुने" की, पता नहीं मुझे कितनी बड़ी सज़ा देना चाहता है ये। मै डर भी गया कहीं न कहीं। गाड़ी के अंदर तीन मुसटंडे बार बार झांक रहे थे। वो बोल क्या रहे थे ये बताने की ज़रुरत नहीं। ऐसा मैंने कई बार दूसरे लोगों के साथ होते देखा था तो अफसोस होता था और सब की तरह लोगों के "सिविक सेंस" को गलियाता। लेकिन, कल मुझे हज़ारी प्रसाद द्विवेदी याद आ गए। ग्रैज्यूएशन के दौरान हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी का एक ललित निबंध पढ़ा था "नाखून क्यों बढ़ते हैं"। निबंध में एक बच्चा अपने पिता से पूछता है कि नाखून क्यों बढ़ते हैं। जवाब जो मुझे समझ में आया वो ये कि आदिम ज़माने में मनुष्य जब अपने हाथों शिकार करता था तो नाखून कई बार फाड़ने चीरने में बड़े काम आते थे। लेकिन मनुष्य धीरे धीरे सभ्य होता गया तब मनुष्य ने नाखूनों को भी नियंत्रण में रखना सीख लिया। यानी नाखून हमारी असभ्य व्यवहार का प्रतीक है जिसने हमें हज़ारों सालों की सीख के बाद नेल कटर से काटना यानी नियंत्रण में रखना सीख लिया है। लेकिन, ये बढ़ना आज भी बंद नहीं हुए हैं। नाखून तो बढ़ते रहते हैं...और अगर आप किसी सड़क जाम में फंसे हों तो फिर तो लगता है कि ये और तेज़ी से बढ़ते हैं। पता नहीं ये नाखून किसे, कब कितना नुकसान पहुंचा जाएं। ये और बात दिमाग में आई कि कहीं नाखून का संबंध हमारी दिमागी फितरत से तो नहीं। अगर ऐसा है, तो सप्ताह में एक दिन नहीं बल्कि हर रोज़ नाखून काटने पड़ेगें।......