26 दिसंबर, 2009

अशोक उपाध्याय को मरना नहीं चाहिए था...

नाइट शिफ्ट में अशोक सर की मौत हो गई। ईटीवी में मेरे रहते शायद ही कभी उन्हें नाइट शिफ्ट में देखा हो। वो भी ईटीवी राजस्थान से जुड़े थे और मैं भी, लेकिन उनसे काफी जूनियर। उस शानदार व्यक्तित्व को आख़िर कौन भूल सकता है। वीओआई में वो नाइट शिफ्ट के इंचार्ज थे। मैंने ईटीवी 2004 के अगस्त महीने में ज्वाइन किया था और ईटीवी राजस्थान से जुड़ाव अक्टूबर, 2004 से हुआ हैदराबाद में ही। मैं ऐंकर था और अशोक सर भी उस दौरान मूल रुप से ऐंकरिंग ही कर रहे थे। शानदार ऐंकरिंग अपने उस ऐंकरिंग से शुरुआती दौर में उन्हें देखकर सोचता था कि आख़िर को कैसे बिना फम्बलिंग किए कैसे इतना स्मूद ऐंकरिंग कर सकता है। कहने की ज़रुरत नहीं कि काफी कुछ सीखा। अशोक उपाध्याय ईटीवी राजस्थान के डेस्क इंचार्ज थे और मैं नया नवेला एंकर। आज दिल में तुफान है उनके जाने से मन हो रहा है कि चिल्ला चिल्ला कर रोऊं। क्यों याद आ रहे हैं वो इतना। शायद इसलिए कि आज मैं जो हूं उसमें उनका एक बड़ा हाथ है। भूल नहीं सकता कि कैसे वो सपोर्ट करते थे, कैसे अपने महत्वपूर्ण बुलेटिन मुझसे जानबूझकर करवाते। चाहे चुनावी बुलेटिन हो या प्राइम टाइम बुलेटिन। काफी कम समय में मुझे काफी कुछ करने का मौकै मिला, अशोक सर ने बहुत किया। कभी कभी सोचता सर ऐसा क्यों करते हैं, क्या उनको अपना करियर आगे नहीं बढ़ाना। लेकिन, उनके चेहरे की निशचिंतता आश्वस्त करती। सारे सवालों को शांत कर देती। लेकिन के बुलेटन बनाने वाले लोगों पर कोफ्त होती कि कैसे लोग बुलेटिन बना रहे हैं। लेकिन जब अशोक सर बुलेटिन बनाते तो मज़ा आ जाता, लेकिन मैं जब होता तो वो बुलेटिन या तो ख़ुद अपना बनाया बुलेटिन पढ़ते या कोशिश में रहते कि मैं पढूं। लेकिन उनका बुलेटिन पढ़ना आसान भी नहीं होता था। साथ ही ये टेंशन कि अशोक सर पीसीआर में मौजूद हैं।
क़रीब पौने दो साल बाद मैंने ईटीवी छोड़ दिया। लोकसभा टीवी ज्वाईन करने के बाद कभी कभी बात हो जाती धीरे धीरे वो भी बंद होता गया। फिर पता चला कि वो वीओआई ज्वाइन करने वाले हैं। नौकरी के लालच में मैंने भी फोन किया, आख़िर सीनियर प्रोड्यूसर थे वो। लेकिन उनका स्नेह बरक़रार था। दिल्ली में कभी उनसे मिल नहीं पाया अपने पहले औपचारिक बाॅस से....अब भी कभी मिल भी नहीं पाउंगा। उनकी मौत नहीं होनी चाहिए थी...ना मैं मानने को तैयार नहीं...उन्हें अभी काफी ओमप्रकाशों की ज़रुरत है। ये सीखने की कि कैसे चुपचाप बेहतर काम हो सकता है। उनकी मौत मीडिया की कार्यशैली पर भी सवाल उठाती है....अशोक सर, आपको नहीं जाना चाहिए था। लोग आपको देखकर आप जैसा बनना चाहते थे, लेकिन आपकी इस तरह से मौत किसी को आपकी तरह होने से रोकेगी।

1 टिप्पणी:

निर्मला कपिला ने कहा…

अच्छा लगा कि अभी भी बहुत से अच्छे व्यक्ति हैं जो अच्छे लोगों को याद करते हैं । स्व.अशोक जी को विनम्र श्रद्धाँजली।