02 मार्च, 2010

घाटे में कल्याण कैसे?

बजट आ गया है, कहीं हाय तौबा मची है तो कहीं सेंसेक्स छलांगे मार रहा है। घबराने की कोई बात नहीं है क्योंकि हाथ जो आम आदमी के साथ है। लेकिन, मेरी छोटी सी बुद्धि में ये नही समा पा रहा कि आख़िर घाटा (राजकोषिय) तो सरकार को कम करना ही है, कब तक घाटा की व्यवस्था चलती रहेगी। समझदारी इसी में है कि अच्छे समय में इस काम को कर दिया जाए, न हो तो कम से कम इसे शुरु तो कर ही दिया जाए। बजट में राजकोषिय घाटा साढ़े छ फीसदी से भी ज्यादा है। आम लोग शायद इसे न समझ पाएं लेकिन इसका असर बड़े भीतर तक जाते हैं, आम आदमी की जेब को खोखला करने की हद तक। इस घाटे में राज्यों के घाटे को मिला लें तो फिर भगवान ही मालिक है। ये क़रीब १० फीसदी तक चला जाता है। यही हाल रहा तो तेल कंपनियों के दिवालिया होने में देर नहीं लगेगी। लाख करोड़ों की सब्सिडी देकर भी आम किसानों आम रोज़पेशा लोगों का कल्याण ही नहीं होता। अपने आफिस के कार वालों को हसरत भरी निगाहों से देखता था, अब उनमें से कईओं ने झाड़ पोंछ कर अपनी फटफटिया निकाल ली है। ये देखकर अजीब सा डर लगा कि चर चक्कवा पर बैठने का सपना क्या ऐसे ही रह जाएगा। क्या मेरा भी कल्याण नहीं हो पाएगा। उन करोड़ों लोगों का क्या होगा जो चर चक्कवा और दु चक्कावा जैसे सपनों के बारे में भी सोच नहीं सकते हैं। चिंता सबसे बड़ी मेरी ये है कि संविधान में दर्ज उस शब्द का क्या होगा जो एक कल्याणकारी राज्य का हमसे वादा करता है। ऐसे में याद आती है अंग्रेजी की वो कहावत कि सरवाइवल आफ द फिटेस्ट। हमारे शासक कहते हैं कि हम इतने मज़बूत हो चुके हैं कि इस तरह के महंगाई के झटके को सह सके। इस सवाल पर चर्चा करने का वक्त आ गया है कि हम पूछें कि फोकस क्या है कल्याणकारी राज्य या राजकोषिय घाटा।

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