14 जनवरी, 2008

कहां है हमारा आसमां !


पिछले सात-आठ सालों में संसदीय कार्यवाही और उसकी जवाबदेही पर कई सवाल उठे हैं। नतीजा ये कि संसदीय कार्यवाही एक अलग से टीवी चैनल पर "लाईव" होने के बाद भी हम अक्सर कई फैसलों से बेपरवाह रहते हैं। ये वो फैसले हैं जो धीरे धीरे ही सही लेकिन मील का पत्थर का रुप ले लेते हैं। ये मील के पत्थर सालों के जनसंघर्ष का परिणाम होते हैं। ऐसा ही एक पत्थर क़ानून की शक्ल में पिछले 1 जनवरी से लागू हुआ। ये क़ानून उन साढ़े आठ करोड़ आदिवासियों को अपनी तरह से जीने का अधिकार देता है। ये क़ानून है Forest Tribal Act यानी आदिवासी वनाधिकार क़ानून।
जल, जंगल और ज़मीन पर हो किसका हक़। ये नारा बार उठता रहा है। वो वनवासी जो सालों से जंगलों के साथ साथ जीते रहे हैं। क्या अचानक ही उन्हें पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण के नाम पर उसी जंगल का दुश्मन बताया जा सकता है। यही वो बड़ा सवाल जिसने आदिवासी वनाधिकार क़ानून की भूमिका रची।
अनुसूचित जनजाति के करोड़ो लोग सालों से जंगलों में रहते हुए वहां के संसाधनों का इस्तेमाल करते आए हैं। ये संसाधन रोज काम आने वाली चीज़े हैं, मसलन दातुन या जलावन। लेकिन इसे अब तक कोई क़ानूनी जामा नहीं पहनाया जा सका था। क्योंकि इसके रास्ते में 1980 का जंगल संरक्षण क़ानून एक बड़ी बाधा थी। 1980 में बने इस क़ानून ने एक तरह से आदिवासियों के पूरे अस्तित्व को ही कटघरे में खड़ा कर दिया था।
पिछली 1 जनवरी को आख़िरकार आदिवासी वनाधिकार क़ानून लागू कर दिया। इस कदम के बाद उन आदिवासियों को राहत मिलेगी जो 1 दिसंबर 2005 तक जंगलों की ज़मीनों पर रहते आए हैं। एक अनुमान के अनुसार इस क़ानून का फायदा लेने वालों की संख्या 1 करोड़ के आसपास है।
इस क़ानून के दायरे से 28 टाईगर रिज़र्व को बाहर रखा गया है। इससे इन टाईगर रिज़र्व में रहने वाले क़रीब 10 लाख जंगलवासियों को बेघर होना पड़ेगा। टाईगर लॉबी इस क़ानून के सख्त खिलाफ थी। उनका आरोप है कि पिछले सालों में आदिवासी पूरी तरह से बदल गए हैं। उनकी आबादी बढ़ रही है। नतीजा जंगलों और जानवरों को भारी नुकसान हो रहा है। जंगल से तस्करी में भी उनका एक बड़ा योगदान है।
एक तरफ ये कहा जा रहा था कि जंगलों और जानवरों को आदिवासियों से ही सबसे ज्यादा नुकसान होता है, जबकि सदियों से जंगलों में ही रहने वाले आदिवासी इस बात को मानने को तैयार नहीं थे। लेकिन यहां ये भी याद रखना होगा कि देश के कई इलाकों में ये आदिवासी ही हैं जिन्होंने कई हद तक पर्यावरण संतुलन भी बनाए रखा है वो जंगल और जानवरों के पूजते तक हैं। याद कीजीए राजस्थान के बिशनोई समुदाय को जिसने काले हिरण के शिकार को लेकर एक आंदोलन ही खड़ा कर दिया और सलमान ख़ान को सज़ा भी हुई।

2 टिप्‍पणियां:

भागीरथ ने कहा…

पूंजीपतियों के हित में बनने वाले कानूनों के बीच यदि गरीबों खासकर आदिवासियों के हित के लिए कोई कानून बने तो वह वाकई सराहनीय है। हमारे देश में गरीबो के हित में बने कानूनों की कमी नहीं है, लेकिन उन्‍हें ईमानदारी के कभी लागू नहीं किया जाता और सरकार मात्र कानून बनाकर अपने कर्तव्‍य से मुक्ति पा लेती है। जब तक यह परिपाटी नहीं बदली जाती तब तक इन कानूनों के गरीबों का भला नहीं हो सकता। आदिवासियों के हित हेतु बना यह कानून उन्‍हें लाभ पहुंचाए मै ऐसी कामना करता हूं।

भागीरथ ने कहा…

पूंजीपतियों के हित में बनने वाले कानूनों के बीच यदि कोई ऐसा कानून बने जिससे गरीबों खासकर आदिवासियों का भला हो, तो वह सराहनीय है। हमारे यहां गरीबों के हित हेतु कानून तो अनेक बनें हैं लेकिन उनका ईमानदारी से लागू न करना और लोगों को उसकी जानकारी न देने की वजह से वह अपना महत्‍व खो देता है। ऐसे ही कानूनों की सूची में आदिवासियों का यह कानून शुमार न हो और उसका व्‍यापक फायदा उन तक पहुंचे, मैं ऐसी उम्‍मीद करता हूं।