24 जून, 2008

ग़ुलामी, गिरवी और फिसलन !

बस एक सवाल? क्या हमारी पूरी सरकार और अर्थव्यवस्था तेल की कीमतों के हाथों गिरवी हो चुकी है ? वित्त मंत्री ने स्वीकार किया कि हमारी अर्थव्यवस्था एक कठिन दौर से गुज़र रही है। मुद्रास्फीति का आंकड़ा 11 फीसदी के पार जा पहुंची। इस तेज़ी के पीछे 94 फीसदी भागीदारी पेट्रोल, डीज़ल और रसोई गैस की है। एक बैरल कच्चे तेल की कीमतें 140 डॉलर के आसपास मंडरा रही है। अनुमान लगाया जा रहा है कि अक्टूबर आते आते ये 200 डॉलर तक जा सकती हैं। तब क्या होगा, तब क्या करेगी सरकार और क्या होगा महंगाई का। जानकार कहते हैं कि अगर तेल की कीमतें न बढ़ती तो ये सब न होता। यानी हम तो तेल के गुलाम हुए । लेकिन भारत की तरह एशिया और युरोप के बहुत से देश हैं जिन्हें तेल काफी मात्रा में बाहर से मंगाना पड़ता है। मगर इनमें से कहीं भी महंगाई ने ऐसा तांडव नहीं मचाया। ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, और मलेशिया इन देशों के उदाहरण हैं। हमारे पेट्रोलियम और वित्त मंत्री तेल निर्यात करने वाले देशों से गुहार करने गए कि भई तेल का उत्पादन बढ़ाओं नहीं तो हमारे विकास के सारे आंकड़े बेफजूल साबित हो जाएगें। लेकिन वो क्यों मानने लगे हमारी बात। साफ कहा गया कि मांग और आपूर्ति में ज्यादा अंतर नहीं है। कुछ दिनों पहले ही ईरानी राष्ट्रपति ने साफ कहा कि आपूर्ति का कोई संकट नहीं है, मामला बीच का है, यानी मामला सट्टेबाज़ी का है। सरकार पर सवाल है, क्यों वो पहले से नहीं चेती। क्यों आंखे बंद थी। ढ़ाई लाख करोड़ तक पहुंचा तेल कंपनियों का घाटा किसकी जेब से वसूला जाएगा।

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