23 दिसंबर, 2008

निशान-ए-जुत्ता

निशाना लगे न लगे लेकिन ज़ख्म तो हो ही जाता है, चोट तो लग ही जाती है। क्या करें जूता तो चीज ही ऐसी है। मुंतज़ीर अल ज़ैदी का जूता भी कुछ अलग नहीं था। अफवाह तो ये भी है कि श्रीमान ज़ैदी पिछले कई दिनों से जूता निशाने पर मारने की प्रैक्टिस कर रहे थे। लेकिन लगता है उन्होंने मन लगा कर क्रिकेट नहीं खेली। अगर खेली भी तो गुरु ग्रेग जैसा कोच नहीं मिला होगा। ख़ैर, जूता तो निशाने पर नहीं लगा, लेकिन दाद देनी होगी महामहीम बुश की। इतने फुर्तीले। कानों के पास गुज़रते गुज़रते बुश साहब ने ये भी देख लिया कि जूता 10 नंबरी है। यानी, आंखें भी शरीर जितनी चपल।
अब निशाने का क्या है। लगी, लगी नहीं लगी। बात दरअसल में ये है कि जब अमेरिका का सुरक्षा विभाग पेंटागन में इराक़ पर हमला करने की योजना बना रहा था तो एक सूची बनाई गई। सूची में सबसे ऊपर उन ठिकानों का ज़िक्र था जिन पर सबसे पहले अमेरिकी बमबाज़ों को ढाहना था। सूची के अंत में इराक़ी तेल के कूएं, वहां का मशहूर संग्रहालय, अस्पताल, रिहाइशी इलाक़े वैगरह शामिल थे। लेकिन, जब अमेरिकी एफ-16 गरजे तो सबसे पहले निशाने वही इमारतें थीं जिन्हें या तो निशाना नहीं बनाना था या फिर अंत में काफी मुश्किल परिस्थितियों में नेस्तेनाबूद करना था। लेकिन हुआ बिलकुल उलटा। क्या करें हो सकता है निशाना न लगा हो। या हो सकता है कि अमेरिकी पायलटों ने हड़बड़ी में सूची उलटी पकड़ ली हो। अब क्या करें बड़े बड़े लक्ष्य को पाने के लिए छोटी मोटी क़ुर्बानियां तो देनी ही पड़ती हैं।

1 टिप्पणी:

Ajayendra Rajan ने कहा…

bhai ko salaam...kaise hai...badhia likh rahe hai...lage rahe...