Slumdog मिलनियर लगता है सचमुच फिरंगियों को पसंद आ गई है। अब तो विश्व बैंक भी इसे पसंद करने लगा है। ख़ैर, ये बात विस्तार से थोड़ी देर में। आपको शायद भोजपूरी साहित्यकार भिखारी ठाकुर के बिदेसिया की याद हो। कितने दर्द दिए बिदेसिया ने। कितने घर उजाड़े। बिहारियों की ही बात करें तो कभी वो दिल्ली में रिक्शा चलाते गालीयों पर गालियां खाते रहते हैं। कभी पंजाब के खेतों में मज़दूरी करते दिख जाते हैं। सुना है कश्मीर के उन इलाक़ों में जहां कोई जाने को तैयार नहीं होता वहां बिहारी मज़दूर सड़क बनाने को तैयार हो जाते हैं। ऐसे में एक सरकारी योजना आई, नरेगा यानी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना। इस योजना की सफलता-असफलता और भ्रष्टाचार पर लंबी बहस हो सकती है। लेकिन, कई इलाक़ों में इसने अंतर तो पैदा किया है। पंजाब में मज़दूर खोजे नहीं मिल रहे हैं। राजस्थान, आंध्रप्रदेश, बिहार के कई इलाक़ों में रोटी के लिए अपना घर-दुआर न छोड़ना पड़े इसका विकल्प नरेगा ने तो दिया ही है। विश्व बैंक को ये बात अच्छी नहीं लगी। उनका कहना है कि गांव से शहर में लोगों का आना तरक्की की निशानी है। उन्हें शहरों में आने से रोकना नहीं चाहिए, इसलिए नरेगा जैसी योजनाएं भारत के आर्थिक विकास में बाधक हैं। मुझे लगता है, कि विश्व बैंक को शहरों में बढ़ते जा रहे स्लमों यानी झोपड़ पट्टियों और गंदे नालों से प्यार हो गया है। शायद इसलिए उन्हें फिल्म स्लमडाॅग मिलिनियर भी पसंद आई होगी। गांवों से शहरों में जितना पलायन उतने स्लम। जितने स्लम उतनी तरक्की। पता नहीं विश्व बैंक आगे क्या करेगी। शायद, भारत सरकार को कुछ फंड दे दें नरेगा रोकने के लिए।
2 टिप्पणियां:
sahab world bank ko bhi karne ko kuch kaam chahiye ki nahi ,,jitne zyada slum utna zyada social work..
sach hai ki zyadatar gaali sunne waale bihaari hi hai fir chaahe wo rikshaw chala rahe ho, mazdoor ho yaa aise hi koi mehnat kaa kaam kar rahe ho. bihar se ab bhi logon kaa palayan jaari hai chaahe padhe likhe ho yaa fir ashikshit garib. kya sarkaar kabhi is palayan ko rok paayegi....?
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