29 मई, 2008

तेल की फिसलन !

सब सांस रोके इंतज़ार कर रहे हैं कि पेट्रोल-डीज़ल के दाम आज बढ़े कि कल । बढ़ेगें तो ज़रुर। एक कमाल की बात है। एक तरफ सरकार और सरकारी तेल कंपनियां इस बात पर माथा खपा रही हैं कि बढ़ते पेट्रोलियम सब्सिडी से कैसे छुटकारा मिले। क्योंकि, चालू वित्तिय साल में ये सब्सिडी 2 लाख करोड़ के पार जा सकती है। ये राशि इतनी है कि भारत निर्माण और राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना की पूरी राशि भी बौनी साबित हो जाए। सरकारी तेल कंपनियों को हर दिन 600 करोड़ का नुकसान हो रहा है। लेकिन राजनीति ने पांव जकड़ रखे हैं। भाई, तेल के दाम कौन बढ़ाना चाहेगा, वो भी चुनावी बेला में। लेकिन मज़े की बात कि सरकार अपने राजस्व में कोई कमी करने को तैयार नहीं है। एक लीटर पेट्रोल या डीज़ल पर जो पैसे हम चुका रहे हैं, उसका लगभग 50 फीसदी सरकारों के पास कमाई के रुप में जाता है और 50 फीसदी सरकारी तेल कंपनियों के पास।
आज देश में कच्चे तेल के आने के बाद हमारी सरकारें कुल चार तरह के कर आम जनता से वसूलती है। आज भी जब महंगाई 8 फीसदी के आसपास मंडरा रही है, तब भी इन करों में कोई राहत नहीं है। चाहे आयात कर हो या सीमा शुल्क, उत्पाद शल्क हो या राज्यों के बिक्री कर। आज हमारे देश में पेट्रोलियम उत्पादों पर 32 फीसदी से ज्यादा उत्पाद शल्क वसूला जा रहा है, जबकि चीन में ये मात्र 5 फीसदी है तो पाकिस्तान में सिर्फ 2 फीसदी। इस बीच कई ख़बरें आ रही है, जैसे तेल कंपनियों के बढ़ते घाटे को कम करने के लिए आयकर और कॉरपरेट करों पर एक उपकर यानी सेस लगा दिया जाए। लेकिन क्या सरकार ऐसा जोखिम लेगी। पहले ही फरवरी में सरकार ने तेल के दाम बढ़ाए थे, लेकिन काफी कम। पिछले 8 महीने में कच्चे तेल की कीमतें 64 से 130 डॉलर प्रति बैरल तक जा चुकी हैं। लेकिन हमारे यहां कीमतें बढ़ी सिर्फ 3 से 4 फीसदी तक। ये राजनीति ही है जिसने कीमतें बढ़ने नहीं दिया है। लेकिन बकरे की अम्मा कब तक खै़र मनायेगी यही देखना है। कहीं ऐसा ना हो कि अंत में तेल की फिसलन से न आम जनता बच पाए न ही सरकार।

20 मई, 2008

अब क्या करेगी सरकार ?

मुहावरा मुंह चिढ़ाने का सही उदाहरण शायद इससे बेहतर कोई नहीं हो सकता। महंगाई का आंकड़ा जैसे-जैसे ऊपर जा रहा है वैसे-वैसे हमारे महान अर्थशास्त्री चिदंबरम साहब और प्रधानमंत्री महोदय की फ़जीहत भी नए रिकॉर्ड बना रही है। आज मुद्रास्फीति 7.83 फीसदी तक जा पहुंची है, यानी 44 महीनों में सबसे ज्यादा। दावों पर दावे लेकिन मुद्रास्फीति 8 वें पायदान पर पहुंचने का बेताब सबको चिढ़ा रहा है। कर लो जो करना है। ये महंगाई ज्यादा ख़तरनाक दिखती है। इसलिए क्योंकि सरकार के पास करने को ज्यादा कुछ बचा नहीं है। पिछले दिनों ही रिज़र्व बैंक ने बाज़ार से पैसा हटाने के लिए अपने नगद आरक्षित अनुपात में 75 बेसिस अंक तक की बढ़त की। उम्मीद थी कि बाज़ार से 26 से 29 हज़ार करोड़ रुपयों तक की तरलता कम हो जाएगी। नतीजा लोगों के पास पैसे कम होगें तो, मांग कम होगी और महंगाई पर लगाम लगेगी। सरकार ने आपूर्ति ठीक करने के दावे किए लेकिन परिणाम दिखता नहीं। जानकार चेतावनी दे रहे हैं कि महंगाई का ये सूचकांक 8 फीसदी के ऊपर जाकर रहेगा।
सरकार की इन कोशिशों को धक्का रुपए की कमज़ोरी के कारण भी लगा है। पिछले साल जहां परेशानी इस बात की थी कि रुपया ज़रुरत से ज्यादा इठला रहा था तो इस बार मामला उलटा है। चिंता का कारण पेट्रोलियम के बढ़ते दाम भी हैं। वहीं, सरकारी पेट्रोलियम कंपनियां भी बाप-बाप कर रही हैं। रुपए के कमज़ोर होने से आयात महंगा हुआ है, जिसका सीधा असर पेट्रोलियम उत्पादों पर पड़ा है। लेकिन चुनावी साल में सरकार भी बेबस बनी काग़ज काले किए जा रही है। नतीजा, सब्सिडी का बोझ सरकार पर बढ़ता जा रहा है। लग रहा है कि ये सब्सिडी का बिल जीडीपी के 5 फीसदी तक जा सकती हैं। ऐसे में एक सवाल और कि सरकार के बजटिय घाटा का क्या होगा।
महंगाई के साथ साथ एक और बात के लिए तैयार रहिए। वो है तेज़ जीडीपी रफ़्तार आपको रेंगती नज़र आ सकती है।

09 मई, 2008

मासूम बुश और मुटाते हम

हम फिल्मों में काफी पहले से देखते आ रहे हैं कि जुड़वा भाईयों के बीच इतना प्यार होता है कि एक को मारे तो दूसरे को लगे। ऐसा ही कुछ रिश्ता हमारा अमेरिका के साथ हो गया है। खाएं हम पेट दरद हो उनका। अरे, अब ये दरद नहीं है तो और क्या है। बुश साहब कहते हैं कि पूरी दुनिया की महंगाई के लिए भारत का मध्य वर्ग ज़िम्मेवार है। 35 करोड़ का विशाल भारतीय मध्य वर्ग। महाशक्ति अमेरिका की पूरी आबादी से भी बड़ा। राष्ट्रपति महोदय का कहना है कि भारत का ये वर्ग खा खाकर मुटा रहा है। लेकिन अफसोस कि उनके ही इशारे पर चलने वाले संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े उन्हें झूठा साबित करते हैं। हमारे मासूम से बुश साहब को कोई बताए कि पिछले सालों में अमेरिका में अनाज की खपत 12 फीसदी की दर से बढ़ी है जबकि हमारे यहां सिर्फ 2.5 फीसदी। अरे, सिर्फ पिछले साल की बात करें तो अमेरिका में अनाज की खपत 31 करोड़ टन से भी ज्यादा रही तो वहीं, भारत में 20 करोड़ टन से भी कम। अब क्या बताए बेचारे बुश पूरी दूनिया की फिकर उन्हें इतना सताती है कि इन छोटी मोटी बातों की तरफ उनका ध्यान ही नहीं जा पाता।
हां, बुश महाश्य को ये भी बता दें कि खु़द उनके ही देश में मक्का को बड़े पैमाने पर जैव-ईंधन के लिय इस्तेमाल किया जा रहा है। साथ ही जानकार बताते हैं कि 2010 तक अमेरिका में 30 फीसदी मक्का का इस्तेमाल एथेनॉल बनाने के लिए होगा। लेकिन अब ये तय करना होगा कि पूरी दुनिया के 80 करोड़ कार मालिकों के लिए ईंधन तैयार करने में अनाज का लगाना है या भूखमरी के शिकार 1.5 अरब लोगों का पेट भरना।