30 दिसंबर, 2009

नया साल नई शुरुआत !

कल से तारिखों के कुछ हिस्से हमेशा के लिए बदल जाएगें।
1 जनवरी से नई शुरुआत करेगें।
क्या हम तुम फिर नए सिरे से बात करेगें।
इस बार ई मेल नहीं दिल से मिलेगें।
इस बार मोबाइल से नहीं, गले मिलेगें।
नौ-कड़ी (यानी नौकरी) की आपाधापी छोड़, जम कर पार्टी करेगें।
बैठकखाने में चर्चा छोड़, सड़कों पर उतरेगें।
जो ग़लत हो उसे ग़लत कहेगें।
नया साल नई शुरुआत बने सबको कहेगें।

26 दिसंबर, 2009

अशोक उपाध्याय को मरना नहीं चाहिए था...

नाइट शिफ्ट में अशोक सर की मौत हो गई। ईटीवी में मेरे रहते शायद ही कभी उन्हें नाइट शिफ्ट में देखा हो। वो भी ईटीवी राजस्थान से जुड़े थे और मैं भी, लेकिन उनसे काफी जूनियर। उस शानदार व्यक्तित्व को आख़िर कौन भूल सकता है। वीओआई में वो नाइट शिफ्ट के इंचार्ज थे। मैंने ईटीवी 2004 के अगस्त महीने में ज्वाइन किया था और ईटीवी राजस्थान से जुड़ाव अक्टूबर, 2004 से हुआ हैदराबाद में ही। मैं ऐंकर था और अशोक सर भी उस दौरान मूल रुप से ऐंकरिंग ही कर रहे थे। शानदार ऐंकरिंग अपने उस ऐंकरिंग से शुरुआती दौर में उन्हें देखकर सोचता था कि आख़िर को कैसे बिना फम्बलिंग किए कैसे इतना स्मूद ऐंकरिंग कर सकता है। कहने की ज़रुरत नहीं कि काफी कुछ सीखा। अशोक उपाध्याय ईटीवी राजस्थान के डेस्क इंचार्ज थे और मैं नया नवेला एंकर। आज दिल में तुफान है उनके जाने से मन हो रहा है कि चिल्ला चिल्ला कर रोऊं। क्यों याद आ रहे हैं वो इतना। शायद इसलिए कि आज मैं जो हूं उसमें उनका एक बड़ा हाथ है। भूल नहीं सकता कि कैसे वो सपोर्ट करते थे, कैसे अपने महत्वपूर्ण बुलेटिन मुझसे जानबूझकर करवाते। चाहे चुनावी बुलेटिन हो या प्राइम टाइम बुलेटिन। काफी कम समय में मुझे काफी कुछ करने का मौकै मिला, अशोक सर ने बहुत किया। कभी कभी सोचता सर ऐसा क्यों करते हैं, क्या उनको अपना करियर आगे नहीं बढ़ाना। लेकिन, उनके चेहरे की निशचिंतता आश्वस्त करती। सारे सवालों को शांत कर देती। लेकिन के बुलेटन बनाने वाले लोगों पर कोफ्त होती कि कैसे लोग बुलेटिन बना रहे हैं। लेकिन जब अशोक सर बुलेटिन बनाते तो मज़ा आ जाता, लेकिन मैं जब होता तो वो बुलेटिन या तो ख़ुद अपना बनाया बुलेटिन पढ़ते या कोशिश में रहते कि मैं पढूं। लेकिन उनका बुलेटिन पढ़ना आसान भी नहीं होता था। साथ ही ये टेंशन कि अशोक सर पीसीआर में मौजूद हैं।
क़रीब पौने दो साल बाद मैंने ईटीवी छोड़ दिया। लोकसभा टीवी ज्वाईन करने के बाद कभी कभी बात हो जाती धीरे धीरे वो भी बंद होता गया। फिर पता चला कि वो वीओआई ज्वाइन करने वाले हैं। नौकरी के लालच में मैंने भी फोन किया, आख़िर सीनियर प्रोड्यूसर थे वो। लेकिन उनका स्नेह बरक़रार था। दिल्ली में कभी उनसे मिल नहीं पाया अपने पहले औपचारिक बाॅस से....अब भी कभी मिल भी नहीं पाउंगा। उनकी मौत नहीं होनी चाहिए थी...ना मैं मानने को तैयार नहीं...उन्हें अभी काफी ओमप्रकाशों की ज़रुरत है। ये सीखने की कि कैसे चुपचाप बेहतर काम हो सकता है। उनकी मौत मीडिया की कार्यशैली पर भी सवाल उठाती है....अशोक सर, आपको नहीं जाना चाहिए था। लोग आपको देखकर आप जैसा बनना चाहते थे, लेकिन आपकी इस तरह से मौत किसी को आपकी तरह होने से रोकेगी।

15 अक्तूबर, 2009

29 अगस्त, 2009

जिन्ना ने कहा था...

[1940]
मुस्लिम लीग के एक सम्मेलन में जिन्ना ने कहा...
...ज्यादातर ये पाया गया है कि उनके (हिंदुओं के) जो नायक हैं वे मुसलमानों के दुश्मन हैं...ऐसी दो कौमों को, जिनमें से एक अल्पसंख्यक है और दूसरा बहुसंख्यक, एक देश में बांध देने से असंतोष बढ़ेगा और उस देश के लिए बनाई जाने वाली सरकार का तानाबाना अंतत: टूट जाएगा।
[ अगस्त, 1944]
जिन्ना ने मुस्लिम छात्रों को संबोधित करते हुए कहा...
...पाकिस्तान बन जाने से हिंदू मुसलमान खुश होंगे, क्योंकि ये उनके हित में यहीं ठीक रहेगा। वे कभी भी किसी को भी, चाहे वह अफगान हो या पठान मनमानी नहीं करने देंगे, क्योंकि भारत भारतीयों के लिए है।
[11 अगस्त, 1947]
जिन्ना ने कहा...
...यदि पाकिस्तान विभिन्न देशों के अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में अपनी कोई जगह बनाना चाहता है तो उसे संप्रदाय और मज़हब से ऊपर उठना होगा। आप आज़ाद हैं, आप अपने मंदिरों में जाने के लिए आज़ाद हैं। आप अपनी मस्ज़िदों या दूसरे पूजा स्थलों पर जाने को आज़ाद हैं। आप किसी भी मज़हब, जाति, नस्ल से ताल्लुक रखते हैं, सरकार के कामकाज से उसका कोई सरोकार नहीं होगा।
एक बार गोपाल कृष्ण गोखले ने जिन्ना के बारे में कहा...
...वे सच्चे गुणों से बने हैं और तमाम सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों से मुक्त हैं, यह उन्हें हिंदू-मुस्लिम एकता का सबसे अच्छा राजदूत बनाता है।

.......इन बयानों के ज़रिए मैं कोई विश्लेषण नहीं कर रहा। बल्कि, बहस को समझने की कोशिश कर रहा हूं और सबसे पूछ रहा हूं कि जो अस्पष्टता ये बयान पेश करते हैं वही क्या समस्या की जड़ है। जिन्ना सांप्रदायिक थे या धर्मनिरपेक्ष या कुछ और...आप क्या कहते हैं।
(जिन्ना के ऊपर लिखे बयान मैंने अलग अलग पत्रिकाओं से लिए हैं।)

21 अगस्त, 2009

"नाखून क्यों बढ़ते हैं"

कल दिल्ली में भारी बारिश हुई, इतनी कि.... कितने विशाल पेड़ और खम्भे भूमिशायी हो गए। सड़क पर जाम में फंसे फंसे बड़ी कोफ्त हो रही थी, समझ नहीं आ रहा था कि थोड़ी बूंदाबांदी हो या मूसलाधार बारिश सड़कें फट से जाम हो जाती हैं। चौराहों, गलियों, तिराहा सब जगह गाड़ियां फंसी हुई। हर कोई सबके ऊपर से निकल जाना चाहता था। ट्रैफिक सिगनल खराब तो थे ही। लेकिन बारिश ने जैसे मेरी ही तरह सबको गुस्से से भर दिया था। इतना गुस्सा कि मेरी दोपहिया, एक कार वाले से बस "छुआ" ही था कि वो उबल पड़ा मेरे ऊपर। यहां तक कि जाम खुलने के बाद भी अपनी गाड़ी मेरे आगे पीछे करता रहा जैसे वो मुझे मार देने को ऊतारु हो। मैं सोच रहा था कि इतने "छुने" की, पता नहीं मुझे कितनी बड़ी सज़ा देना चाहता है ये। मै डर भी गया कहीं न कहीं। गाड़ी के अंदर तीन मुसटंडे बार बार झांक रहे थे। वो बोल क्या रहे थे ये बताने की ज़रुरत नहीं। ऐसा मैंने कई बार दूसरे लोगों के साथ होते देखा था तो अफसोस होता था और सब की तरह लोगों के "सिविक सेंस" को गलियाता। लेकिन, कल मुझे हज़ारी प्रसाद द्विवेदी याद आ गए। ग्रैज्यूएशन के दौरान हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी का एक ललित निबंध पढ़ा था "नाखून क्यों बढ़ते हैं"। निबंध में एक बच्चा अपने पिता से पूछता है कि नाखून क्यों बढ़ते हैं। जवाब जो मुझे समझ में आया वो ये कि आदिम ज़माने में मनुष्य जब अपने हाथों शिकार करता था तो नाखून कई बार फाड़ने चीरने में बड़े काम आते थे। लेकिन मनुष्य धीरे धीरे सभ्य होता गया तब मनुष्य ने नाखूनों को भी नियंत्रण में रखना सीख लिया। यानी नाखून हमारी असभ्य व्यवहार का प्रतीक है जिसने हमें हज़ारों सालों की सीख के बाद नेल कटर से काटना यानी नियंत्रण में रखना सीख लिया है। लेकिन, ये बढ़ना आज भी बंद नहीं हुए हैं। नाखून तो बढ़ते रहते हैं...और अगर आप किसी सड़क जाम में फंसे हों तो फिर तो लगता है कि ये और तेज़ी से बढ़ते हैं। पता नहीं ये नाखून किसे, कब कितना नुकसान पहुंचा जाएं। ये और बात दिमाग में आई कि कहीं नाखून का संबंध हमारी दिमागी फितरत से तो नहीं। अगर ऐसा है, तो सप्ताह में एक दिन नहीं बल्कि हर रोज़ नाखून काटने पड़ेगें।......

20 अगस्त, 2009

अब किसकी बारी !

शंकर सिंह वाधेला, गोविंदाचार्य, उमा भारती, मदनलाल खुराना, कल्याण सिंह, बाबुलाल मरांडी.....जसवंत सिंह। इन सब नामों में क्या काॅमन है। यहीं कि इन्हें या तो पार्टी विद डिफरेंस ने या तो पार्टी के निकाल बाहर किया या फिर ये ख़ुद भाजपा को छोड़ चले। इस सूची में और कई नाम जोड़े जा सकते हैं, इसमें कोई शक नहीं। कई नाम इसमें वापस पार्टी में आए और फिर गए भी। जसवंत सिंह नया नाम हैं, आंखों में आंसू लिए पार्टी से निकाले जाने के बाद जब ये फौजी मीडिया से बात कर रहा था तो एक बार तो दिल भर आया। ख़ास बात जानने की क्या है, वो ये कि भाजपा को ये वरदान मिला है कि इस पार्टी से जो भी बाहर जाएगा या भेजा जाएगा वो ज़िंदा नहीं रहेगा...मतलब राजनीतिक तौर पर वो या तो हाशिए पर होगा या ख़त्म हो जाएगा। लेकिन, भाजपा को शाप ये है कि वो अपने पैर पर कुल्हाड़ी ज़रुर चालाएगा...और एक एक करके उसके महारथी गिरते जाएगें, नतीजा भाजपा गर्त और गर्त में गिरती चली जाएगी। मेरी नज़र तो इस पर है कि अगला नंबर किसका है। राजस्थान में वसुंधरा राजे ने विरोध का बिगुल बजा दिया है। राजस्थान में घमासान जारी है। जिन्ना की बात किए बगैर तो ये आलेख अधूरा है। जिन्ना का जिन्न पता नहीं उसी पार्टी को लपेटे में क्यों ले रहा है जो उसकी सबसे बड़ी विरोधी रही है। इसने न तो आडवाणी को छोड़ा और न अब जसवंत को। लेकिन, लाॅजिक की बात करें तो मान लें कि जसवंत ने जिन्ना को महापुरुष बताया तो उसके लिए 600 से ज्यादा पन्नों की दलील भी दी। लेकिन, आडवाणी ने तो सब बातें हवा हवाई की। लेकिन, किसको ज्यादा सज़ा मिली। एक आज भी पार्टी में शीर्ष पर विराजमान है वहीं दूसरा भाजपा का रावण घोषित हो चुका है। आडवाणी ने तो न सिर्फ पार्टी को बदनाम किया बल्की पार्टी कई बार हरवाया है। पार्टी को कन्फ्यूज़ भी किया है। पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती आज यही है कि वो आरएसएस की लाईन पर चलना चाहती है कि मध्य मार्ग अपनाने वाली पार्टी है। इस कन्फ्यूजन के सबसे बड़े जिम्मेदार आडवाणी ही हैं। इसकी सज़ा उन्हें तो अभी तक नहीं मिली लेकिन पार्टी ज़रुर भुगत रही है।

31 जुलाई, 2009

बलुचिस्तान का सच!

--भाग एक--
दो साल पहले की बात है जब भारत के नौसेना प्रमुख ने बलुचिस्तान के ग्वादर में बन रहे बंदरगाह को लेकर एक बयान दिया। ये बयान था कि जिस तरह चीन इस बंदरगाह के निर्माण में मदद दे रहा है वो भारत के लिए रणनीतिक तौर पर काफी महत्वपूर्ण है। इसका सीधा अर्थ ये लगाया गया कि भारत को ये कतई ठीक नहीं लग रहा कि कराची के बाद पाकिस्तान एक और उसी तरह के बंदरगाह बनाने में लगा है। जिसमें चीन की एक बड़ी भूमिका है। यहां की स्थानीय बलूच आबादी भी इस बंदरगाह का भारी विरोध कर रही है। क्या भारत किसी तरह की रुची बलूचिस्तान में है। आज सवाल यही उठ रहा है। बलूचिस्तान से सीनेटर सनाउल्लाह बलूच का कहना था कि "हमसे ज्यादा तो परवेज़ मु्शर्रफ और इस्लामाबाद भारत के क़रीब हैं, हम तो काफी दूर हैं। हमारा संघर्ष हमारे लोगों का संघर्ष है। भारत के लिएो सबसे अच्छा मौका तो 1973 में था जब बलूचिस्तान की आज़ादी की मांग अपने चरम पर थी।" सवाल है कि भारत पर सवाल क्यों उठ रहे हैं। पाकिस्तान कहता है कि आफगानिस्तान में भारत के एक दर्जन से ज्यादा सूचना केंद्र हैं जो कई तरह के भ्रम फैला रहा है। नब्ज़ यहीं है। भारत की आफगानिस्तान में बढ़ती भूमिका को लेकर पाकिस्तान खुश नहीं। भारत ही ऐसा देश है जो आफगानिस्तान के विकास में न सिर्फ अपना पसीना और पैसा लगा रहा है बल्कि वो अपना ख़ून भी लगा रहा है। क्या ये भलमनसाहत हमेशा दूष्टता का शिकार होती रहेगी। पाकिस्तान क्यों नहीं अपने गिरेबानं में झांकता है। पंजाब और पंजाबी राजनीति के दबदबे ने बलूचों को कहीं का नहीं छोड़ा। आज ऊंगली भारत पर उठाना सुरॿित निकासी की तलाश तो नहीं। लेकिन, शर्म अल शेख की संयुक्त घोषणा पत्र परेशान तो करती है। लेकिन झूठ तो झूठ होता है। पाकिस्तान चिल्ला चिल्लाकर दावा कर रहा था कि बलुचिस्तान में भारत की भूमिका को लेकर उसने भारत को डोज़ियर दिया है, लेकिन बाद में वो इससे नानुकूर करने लगा। बाद में अमेरिका के विशेष दूत रिचर्ड हाॅलब्रुक ने साफ किया कि ऐसा कोई डोज़ियर कभी दिया ही नहीं गया।...बाकि कहानी अगले पोस्ट में।

06 जून, 2009

ज्यादा खुश मत हों...

दलित महिला लोकसभा अध्यक्ष, महिला राष्ट्रपति और अल्पसंख्यक वर्ग से प्रधानमंत्री। क्या ये उपलब्धियां हमारे मज़बूत लोकतांत्रिक ढ़ांचे का परिणाम है? कई बार कोई भी इन तथ्यों के सामने खुश हो जाएगा, मैं भी खुश हूं। लेकिन, इन सबके पीछे छिपे बड़े सवाल परेशान करना नहीं छोड़ते। मैं वैयक्तिक रुप से मनमोहन सिंह का सम्मान करता हूं, लेकिन यहां बड़ा सवाल ये है कि क्या दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र को जनता का चुना हुआ प्रधानमंत्री नहीं मिल सकता? बिना कोई चुनाव जीते कोई इस देश में सत्ता की सबसे ऊंची कुर्सी तक पहुंच सकता है, तो ये लोकतंत्र की जीत से ज्यादा एक वफादार की वफादारी का सुफल है। एक बात साफ कर दूं कि मैं आडवाणी जी के कमज़ोर और मज़बूत की बहस में यकीन नहीं करता। महिला राष्ट्रपति की कहानी भी अलग नहीं, ये भी एक मास्टर स्ट्रोक की तरह आया था। हालांकि, हमारा संवैधानिक ढ़ांचा राष्ट्रपति के चयन में सत्ता पॿ का बोलबाला बताता है, लेकिन बात इसपर भी टिकी होती है कि किसे चुना जा रहा है? किसी की योग्यता पर सवाला नहीं, लेकिन सवाल नीयत का है। इसे कहीं से भी महिला सशक्तिकरण समझने की भूल न करें। ये जादूई टोपी से निकले एक नाम की तरह था। महिला लोकसभा अध्यक्ष की तरफ आते हैं। फिर वही सवाल कि क्या पहले दलित और महिला स्पीकर के लिए हम देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी प्रमुख की जादूई टोपी से एक नाम निकलने के मोहताज हैं?अगर कोई दूसरा नाम निकल जाता तो। मीरा कुमार को इस कुर्सी पर क्या स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा ने पहुंचाया है, नहीं। इसके पीछे उनकी विरासत और वफादारी का पारितोषिक है। यहां भी मैं योग्यता की बात नहीं करता, ये मुद्दा आप लोगों पर छोड़ता हूं। क्या आपको लगता है कि ये तीनों शीर्ष पर बैठे सम्मानित व्यक्ति कभी भी किसी मुद्दे पर 10 जनपथ के आगे सोच पाएगें या बोल पाएगें?

02 जून, 2009

मीडिया का फैशन !

पिछले दिनों एक हिंदी न्यूज़ चैनल पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) का प्रवक्ता एंकर के सवालों को झेल रहा था। मुद्दा था अभिनेत्री रेखा को मिलने वाले एक पुरस्कार को लेकर मनसे का विरोध। मनसे का युवा प्रवक्ता किसी तरह अपने को सही साबित करने की कोशिश कर रहा था, तभी एंकर का दनदनाता सवाल आया कि आप क्यों रेखा के पीछे पड़े हैं महाराष्ट्र के विदर्भ जाकर आत्महत्या करने वाले किसानों के लिए कुछ क्यों नहीं करते। इससे पहले कि मनसे प्रवक्ता कोई जवाब दे पाता ब्रेक का समय हो चुका था। हालांकि पहली नज़र में मुझे एंकर का ये सवाल बिना संदर्भ का लगा लेकिन विदर्भ, किसानों की आत्महत्या, कालाहांडी में भूख मिटाने के लिए अपने दुधमुहे को बेचना। इस तरह की सामाजिक सरोकार वाले सवाल तथाकथित मुख्य धारा कि इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के लिए फैशन या कहें कि दिखावा बन गए हैं। क्योंकि ये टीआरपी दिला नहीं सकते। लेकिन क्या उस समाज में भी ये मुद्दा है या नहीं जहां से ये पैदा हुए हैं। आम चुनाव के सिलसिले में पिछले दिनों महाराष्ट्र के विदर्भ जाने का मौका मिला। इसी सामाजिक सरोकार का मारा मैं था सो बड़ा रोमांचित था कि उस इलाकें में स्टोरी की कोई कमी नहीं होगी जहां पिछले 4-5 सालों में साढ़े तीन हज़ार किसानों ने आत्महत्या की हो। अकोला, अमरावती, यवतमाल, बुलढाणा जैसे इलाकों के गांवों में गया किसानों की कहानियां ढूंढने, लेकिन आश्चर्य कि ये मुद्दा न तो चुनावों में था न ही लोगों के बीच। बुलढाणा के एक गांव चिखली गया जहां कई आत्महत्यायें हो चुकी थीं। मैंने कई गांव वाले से पूछा कि आत्महत्या मुद्दा क्यों नहीं है। जवाब मिला कि सारे उम्मीदवार तो अपने हैं मरने वाले भी अपने ही हैं तो मुद्दा कैसे बने, क्या ज़रुरत है मुद्दा बनाने की एक लाख मुआवज़ा मिलना था मिल गया। जब इसका मतलब ढूंढा तो पता चला कि ये इलाका कुन्बी मराठा समुदाय का है, जहां दोनों मुख्य उम्मीदवार उसी समुदाय के हैं, ज्यादातर मतदाता उसी समुदाय के तो सब अपने ही हैं। यानी मुद्दा ख़त्म। मुद्दा नहीं तो स्टोरी कैसे करुं।

28 मई, 2009

कांग्रेस को वोट क्यों !

चुनावों के सिलसिले में पिछले दिनों महाराष्‍ट्र के दौरे पर था। चुनाव परिणाम के दिन यानी 16 मई की शाम में शिवसेना के उद्धव ठाकरे से मुलाकात हुई। मतदाताओं ने मुंबई की सभी 6 सीटों से शिवसेना का सफाया कर दिया था। हर जगह कांग्रेस ही कांग्रेस छाई थी। उद्धव हैरान परेशान थे। उसने कहा कि उन्हें आश्चर्य है कि जिस शहर में 26/11 हुआ हो वो भी कांग्रेस गठबंधन की सरकार रहते केंद्र में भी और राज्य में भी वहां लोग कांग्रेस को कैसे वोट दे सकते हैं। जिस तरह से मुंबई में आतंकी हमले के बाद मुंबई और देश के लोगों ने जबरदस्त गुस्सा ज़ाहिर किया था वो गुस्सा क्या ग़ायब हो गया। याद रखिए मुंबई में जिन लोगों ने Enough is Enough कहा था वही लोग 30 अप्रील को वोट देने भी न निकल सके। मुंबई में 1977 के बाद सबसे कम मतदान हुआ था। 50 फीसदी से भी कम। चुनावी विशलेषक कहते भी हैं कि जब मतदान कम होता है तो वो सत्ता के पाले में जाता है। हुआ भी यही। तो आख़िर उद्धव की चिंता का क्या जवाब है। लोगों ने क्यों कांग्रेस को वोट दिया। एक सीधा का जवाब ये हो सकता है कि आतंकी घटनाओं के लिए जनता ने कांग्रेस को तो ज़िम्मेदार नहीं माना। लेकिन आतंक से लड़ने के लिए मतदाताओं ने शिवसेना और भाजपा को भी विकल्प तो नहीं ही माना है। आप क्या सोचते हैं...

18 मार्च, 2009

विश्व बैंक की पसंद बिदेसिया !

Slumdog मिलनियर लगता है सचमुच फिरंगियों को पसंद आ गई है। अब तो विश्व बैंक भी इसे पसंद करने लगा है। ख़ैर, ये बात विस्तार से थोड़ी देर में। आपको शायद भोजपूरी साहित्यकार भिखारी ठाकुर के बिदेसिया की याद हो। कितने दर्द दिए बिदेसिया ने। कितने घर उजाड़े। बिहारियों की ही बात करें तो कभी वो दिल्ली में रिक्शा चलाते गालीयों पर गालियां खाते रहते हैं। कभी पंजाब के खेतों में मज़दूरी करते दिख जाते हैं। सुना है कश्मीर के उन इलाक़ों में जहां कोई जाने को तैयार नहीं होता वहां बिहारी मज़दूर सड़क बनाने को तैयार हो जाते हैं। ऐसे में एक सरकारी योजना आई, नरेगा यानी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना। इस योजना की सफलता-असफलता और भ्रष्टाचार पर लंबी बहस हो सकती है। लेकिन, कई इलाक़ों में इसने अंतर तो पैदा किया है। पंजाब में मज़दूर खोजे नहीं मिल रहे हैं। राजस्थान, आंध्रप्रदेश, बिहार के कई इलाक़ों में रोटी के लिए अपना घर-दुआर न छोड़ना पड़े इसका विकल्प नरेगा ने तो दिया ही है। विश्व बैंक को ये बात अच्छी नहीं लगी। उनका कहना है कि गांव से शहर में लोगों का आना तरक्की की निशानी है। उन्हें शहरों में आने से रोकना नहीं चाहिए, इसलिए नरेगा जैसी योजनाएं भारत के आर्थिक विकास में बाधक हैं। मुझे लगता है, कि विश्व बैंक को शहरों में बढ़ते जा रहे स्लमों यानी झोपड़ पट्टियों और गंदे नालों से प्यार हो गया है। शायद इसलिए उन्हें फिल्म स्लमडाॅग मिलिनियर भी पसंद आई होगी। गांवों से शहरों में जितना पलायन उतने स्लम। जितने स्लम उतनी तरक्की। पता नहीं विश्व बैंक आगे क्या करेगी। शायद, भारत सरकार को कुछ फंड दे दें नरेगा रोकने के लिए।

17 मार्च, 2009

...अगला प्रधानमंत्री ?

क्या आपको लगता है कि आज देश के सामने सबसे बड़ा सवाल ये है कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा। अगर आपको ऐसा लगता है तो मीडिया को धन्यवाद दीजिए। जोड़-तोड़ जारी है, प्रधानमंत्री के इतने दावेदार कभी भी नहीं होगें जितने की इस बार हैं। चलिए, ये तो पुरानी बात है कुछ नया कहते हैं। कांग्रेस जानती है कि राहुल बाबा में दम नहीं है, चाहे वो कितनी रातें दलितों के घर बिता लें। राहुल गांधी अपने पापा की याद तो दिलाते हैं लेकिन वोट नहीं दिला पाते। मैडम सोनिया गांधी की तारिफ करनी होगी कि यूपीए अब तक चलती रही। लेकिन, वोटों और सीटों का क्या। वो बढ़ेगीं। बढ़े ना बढ़े घटेगीं ज़रुर, यो तो साफ है। मनमोहन सिंह किंग तो बने हैं लेकिन क्या देश ऐसे प्रधानमंत्री को आगे भी देखता रहेगा जो हमेशा ही बेचारे से लगते हैं। प्रियंका गांधी में दम है, वो दुर्गा दादी की याद भी दिलाती हैं, लेकिन पूरी तस्वीर में वो कहीं नहीं। ये कांग्रेस का दुर्भाग्य है। प्रणव दा भी हैं, लेकिन कोई चाह कर भी उनका नाम नहीं ले रहा। इतनी हिम्मत नहीं। चलिए, दूसरों की भी बात करें। आडवाणी ताल ठोक तो रहे हैं, लेकिन कोई सुनने वाला नहीं। गुजराती मोदी बड़े दावेदार हैं लेकिन कोई उनकी बात नहीं करता, हिम्मत ही नहीं। ये भाजपा का दुर्भाग्य है। दरअसल, हम सब मुंह चुराते रहते हैं सच से। कहते हैं कि शीर्ष पर हमेशा जगह खाली रहती हैं, दुर्भाग्य है कि ये भी सच है...मेरा भी मानना है कि अभी सवाल तो यही है कि प्रधानमंत्री अगला कौन होगा।...चलिए इंतज़ार करते हैं 16 मई का...

12 मार्च, 2009

Slumdog पर जागरुकता चाहिए...

पंचशील की लालबत्ती पर जैसे ही मैंने अपनी बाइक को ब्रेक लगाई कई स्लमिए बड़ी गाड़ियों जैसे इनोवा, टोयोटा पर लूझ पड़े। साफ कर दूं कि गंदे संदे छोटे बच्चों को एक एक रुपए मांगते देख अब सीधे स्लमडॉग मिलिनेयर की ही याद आती है। इसलिए इनको स्लमिए कह दिया। इन स्लमियों को देखकर बड़ा अफसोस भी हुआ। अरे, कहां तो स्लमडॉग को Oscar मिल गया, एक नहीं दो नहीं वो भी आठ, और ये नामुराद अब भी एक-एक रुपया मांग रहे हैं। अवेयरनेस की कमी है क्या करें। ख़ैर, लालबत्ती हरी हुई और आगे बढ़े, ऑफिस पहुंचा। Boos से मैने ऐसे ही पूछ लिया, सर आपने Slumdog..देखी क्या। उन्होंने बड़ा दार्शनिक जवाब दिया...हां देखी तो है लेकिन अलग अलग, स्लम अलग, डॉग अलग और मिलिनियर को अलग। क्या दर्शन है। लेकिन ये अलग अलग हम पहले भी देखते रहे हैं, पर डैनी बाॅयल ने इन सबको एक साथ कर दिया। दर्शन छोड़ो यथार्थ को जानों...इन स्लमियों की आदत जाएगी कब। क्यों नहीं ये भी कोई डायेरेक्टर को ढूंढते...विदेशी न सही देसी ही सही। या कोई अवेयरनेस कैंपेन चलाया जाए, कि एक एक रुपया छोड़ो और किसी रियलिटी शो पर नज़र रखो। मोबाइल तैयार रखो। दनादन एसएमएस करते रहो...किसी न किसी दिन कोई लतिका मिल ही जाएगी...मेरा मतलब है लतिका के साथ तो करोड़ों तो आएगें ही।