28 नवंबर, 2008

कब तक सियासी आतंकवाद ?

देश ने कई आतंकी घटनाओं को अब तक अपना सबकुछ लुटाकर अपनी छाती पर झेला है। लेकिन मुबंई में कुछ और ही देखने को मिला। देश का सबसे बड़ा शहर बंधक बना। ये हमला पहले हुए आतंकी घटनाओं से मीलों आगे का था। ज्यादा घातक और ज्यादा डराता हुआ। कहने की ज़रुरत नहीं कि हमारी तैयारी मीलों पीछे थी। घटना के लगभग 24 घंटों बाद जो अखबारों में एक विज्ञापन छपा कि ये घटनाएं सरकार की कमज़ोरी के कारण हुई। दिल्ली के अख़बारों में छपा ये विज्ञापन देश के प्रमुख विपक्षी पार्टी ने छपवाया था। यहां भी ये कोई बड़ी बात नहीं कि देश में अभी कई राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं।
अमेरिका में आज से लगभग 8 साल पहले एक बड़ा आतंकी हमला हुआ। कई आतंकी संगठन लगातार कोशिशें करते रहे धमकियां देते रहे लेकिन कोई भी इन 8 सालों में कुछ नहीं कर सका। दुसरी तरफ हम लगातार आतंकी हमले होते रहे सिर्फ इस साल के पहले 6 महीनों की बात करें तो हम पर 64 आतंकी हमले हो चुके हैं। बदले में हर कोई दावे करने के सिवा कुछ नहीं कर सका। सत्ता से लेकर विपक्ष तक।
अमेरिका में जब नौ ग्यारह हुआ तो सारे राजनैतिक मतभेद भुला दिए गए क्या डेमोक्रेट क्या रिपब्लिकन। लेकिन हम क्या कर रहे हैं। किसे जिम्मेदार ठहरा रहे हैं किस पर आरोप लगा रहे हैं। कभी कड़े क़ानून को लेकर बहस करते हैं जिसका कोई अंत नहीं होता न ही समाधान। कोई पुलिस मुठभेड़ को फर्जी बताता है। कोई कहता है सरकार आतंक पर नर्म रुख अपना रही है। कोई आरोप लगाता है कि आतंकियों की मेहमाननवाज़ी करके भेजने वाले और विमान के कंधार सुरक्षित पहुंचाने वाले तो कोई और थे। ख़ूनी खेल को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक आतंक में बांटने की कोशिशें होती है। संघिय जांच ऐजेंसी पर भी राजनीति। पुलिस के आधुनिकिकरण पर राजनीति। हम कब वोट और कुर्सी की चिंता छोड़कर देश की चिंता करेगें। कब तक सियासी आतंकवाद का शिकार होते रहेगें ?

23 नवंबर, 2008

पिछले दिनों वित्त मंत्री ने उद्योगपतियों को कहा कि कुछ समय के लिए अपनी कीमतें कम करें। कारण था कि मांग बढ़ सके। चिदंबरम ने ख़ासकर होटल, एयरलाइन और रियल एस्टेट के कारोबारियों और कार और दुपहिया निर्मातोओं से ये बातें कहीं। क्योंकि उद्योगपतियों और मीडीया ने इस तरह का माहौल बना दिया है कि सब के सब डरे हैं। ऐसी हालात में कोई भी कर्ज लेकर ख़रीदारी नहीं करना चाहता। इस वर्ष सात फीसदी के ज्यादा का विकास दर साफ बताता है कि बाज़ार में काफी मांग है।
लेकिन, उद्योग जगत ने चिदंबरम के सलाह को न सिर्फ नकारा उल्टे सरकार पर ही आरोप लगा दिए। उद्योगों की तरफ से कहा गया कि दाम घटाने के बजाए सरकार मांग को बढ़ाने पर ज़ोर दे।
मैं सवाल पूछता हूं कि सीआरआर में साढ़े तीन प्रतिशत, रेपो रेट में डेढ़ फीसदी और एसएलआर में एक फीसदी की कमी के बाद भी बैंक कर्ज देने को क्यों तैयार नहीं हैं। बाज़ार में लगभग दो लाख करोड़ आने के बाद भी उसका असर न तो मांग बढ़ाने पर पड़ा न तो दाम घटाने पर। बैंक पैसों पर जम कर बैठे हैं। कहा जा रहा है कि रियल ईस्टेट पर मंदी की सबसे ज्यादा मार पड़ रही है, जबकि आंकड़े इसे बिलकुल झूठ साबित करते हैं। रियल ईस्टेट का मार्जिन सितंबर,2007 में 42.3 फीसदी था जो सितंबर, 2008 में 49.6 फीसदी तक बढ़ा। इसे आप क्या कहेगें। पी. चिदंबरम ने भी कहा है कि चालू वित्त वर्ष में कंपनियां औसतन 30 फीसदी का लाभ कमा रहे हैं। अब आप ही बताएं ये कैसी मंदी है, जहां चिंता इस बात की है कि अरे मुनाफा कम हो गया। ऐसे में मार्क्स की सुपर प्रॉफिट वाली बात याद आती है।