18 मार्च, 2009

विश्व बैंक की पसंद बिदेसिया !

Slumdog मिलनियर लगता है सचमुच फिरंगियों को पसंद आ गई है। अब तो विश्व बैंक भी इसे पसंद करने लगा है। ख़ैर, ये बात विस्तार से थोड़ी देर में। आपको शायद भोजपूरी साहित्यकार भिखारी ठाकुर के बिदेसिया की याद हो। कितने दर्द दिए बिदेसिया ने। कितने घर उजाड़े। बिहारियों की ही बात करें तो कभी वो दिल्ली में रिक्शा चलाते गालीयों पर गालियां खाते रहते हैं। कभी पंजाब के खेतों में मज़दूरी करते दिख जाते हैं। सुना है कश्मीर के उन इलाक़ों में जहां कोई जाने को तैयार नहीं होता वहां बिहारी मज़दूर सड़क बनाने को तैयार हो जाते हैं। ऐसे में एक सरकारी योजना आई, नरेगा यानी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना। इस योजना की सफलता-असफलता और भ्रष्टाचार पर लंबी बहस हो सकती है। लेकिन, कई इलाक़ों में इसने अंतर तो पैदा किया है। पंजाब में मज़दूर खोजे नहीं मिल रहे हैं। राजस्थान, आंध्रप्रदेश, बिहार के कई इलाक़ों में रोटी के लिए अपना घर-दुआर न छोड़ना पड़े इसका विकल्प नरेगा ने तो दिया ही है। विश्व बैंक को ये बात अच्छी नहीं लगी। उनका कहना है कि गांव से शहर में लोगों का आना तरक्की की निशानी है। उन्हें शहरों में आने से रोकना नहीं चाहिए, इसलिए नरेगा जैसी योजनाएं भारत के आर्थिक विकास में बाधक हैं। मुझे लगता है, कि विश्व बैंक को शहरों में बढ़ते जा रहे स्लमों यानी झोपड़ पट्टियों और गंदे नालों से प्यार हो गया है। शायद इसलिए उन्हें फिल्म स्लमडाॅग मिलिनियर भी पसंद आई होगी। गांवों से शहरों में जितना पलायन उतने स्लम। जितने स्लम उतनी तरक्की। पता नहीं विश्व बैंक आगे क्या करेगी। शायद, भारत सरकार को कुछ फंड दे दें नरेगा रोकने के लिए।

17 मार्च, 2009

...अगला प्रधानमंत्री ?

क्या आपको लगता है कि आज देश के सामने सबसे बड़ा सवाल ये है कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा। अगर आपको ऐसा लगता है तो मीडिया को धन्यवाद दीजिए। जोड़-तोड़ जारी है, प्रधानमंत्री के इतने दावेदार कभी भी नहीं होगें जितने की इस बार हैं। चलिए, ये तो पुरानी बात है कुछ नया कहते हैं। कांग्रेस जानती है कि राहुल बाबा में दम नहीं है, चाहे वो कितनी रातें दलितों के घर बिता लें। राहुल गांधी अपने पापा की याद तो दिलाते हैं लेकिन वोट नहीं दिला पाते। मैडम सोनिया गांधी की तारिफ करनी होगी कि यूपीए अब तक चलती रही। लेकिन, वोटों और सीटों का क्या। वो बढ़ेगीं। बढ़े ना बढ़े घटेगीं ज़रुर, यो तो साफ है। मनमोहन सिंह किंग तो बने हैं लेकिन क्या देश ऐसे प्रधानमंत्री को आगे भी देखता रहेगा जो हमेशा ही बेचारे से लगते हैं। प्रियंका गांधी में दम है, वो दुर्गा दादी की याद भी दिलाती हैं, लेकिन पूरी तस्वीर में वो कहीं नहीं। ये कांग्रेस का दुर्भाग्य है। प्रणव दा भी हैं, लेकिन कोई चाह कर भी उनका नाम नहीं ले रहा। इतनी हिम्मत नहीं। चलिए, दूसरों की भी बात करें। आडवाणी ताल ठोक तो रहे हैं, लेकिन कोई सुनने वाला नहीं। गुजराती मोदी बड़े दावेदार हैं लेकिन कोई उनकी बात नहीं करता, हिम्मत ही नहीं। ये भाजपा का दुर्भाग्य है। दरअसल, हम सब मुंह चुराते रहते हैं सच से। कहते हैं कि शीर्ष पर हमेशा जगह खाली रहती हैं, दुर्भाग्य है कि ये भी सच है...मेरा भी मानना है कि अभी सवाल तो यही है कि प्रधानमंत्री अगला कौन होगा।...चलिए इंतज़ार करते हैं 16 मई का...

12 मार्च, 2009

Slumdog पर जागरुकता चाहिए...

पंचशील की लालबत्ती पर जैसे ही मैंने अपनी बाइक को ब्रेक लगाई कई स्लमिए बड़ी गाड़ियों जैसे इनोवा, टोयोटा पर लूझ पड़े। साफ कर दूं कि गंदे संदे छोटे बच्चों को एक एक रुपए मांगते देख अब सीधे स्लमडॉग मिलिनेयर की ही याद आती है। इसलिए इनको स्लमिए कह दिया। इन स्लमियों को देखकर बड़ा अफसोस भी हुआ। अरे, कहां तो स्लमडॉग को Oscar मिल गया, एक नहीं दो नहीं वो भी आठ, और ये नामुराद अब भी एक-एक रुपया मांग रहे हैं। अवेयरनेस की कमी है क्या करें। ख़ैर, लालबत्ती हरी हुई और आगे बढ़े, ऑफिस पहुंचा। Boos से मैने ऐसे ही पूछ लिया, सर आपने Slumdog..देखी क्या। उन्होंने बड़ा दार्शनिक जवाब दिया...हां देखी तो है लेकिन अलग अलग, स्लम अलग, डॉग अलग और मिलिनियर को अलग। क्या दर्शन है। लेकिन ये अलग अलग हम पहले भी देखते रहे हैं, पर डैनी बाॅयल ने इन सबको एक साथ कर दिया। दर्शन छोड़ो यथार्थ को जानों...इन स्लमियों की आदत जाएगी कब। क्यों नहीं ये भी कोई डायेरेक्टर को ढूंढते...विदेशी न सही देसी ही सही। या कोई अवेयरनेस कैंपेन चलाया जाए, कि एक एक रुपया छोड़ो और किसी रियलिटी शो पर नज़र रखो। मोबाइल तैयार रखो। दनादन एसएमएस करते रहो...किसी न किसी दिन कोई लतिका मिल ही जाएगी...मेरा मतलब है लतिका के साथ तो करोड़ों तो आएगें ही।