31 जुलाई, 2009

बलुचिस्तान का सच!

--भाग एक--
दो साल पहले की बात है जब भारत के नौसेना प्रमुख ने बलुचिस्तान के ग्वादर में बन रहे बंदरगाह को लेकर एक बयान दिया। ये बयान था कि जिस तरह चीन इस बंदरगाह के निर्माण में मदद दे रहा है वो भारत के लिए रणनीतिक तौर पर काफी महत्वपूर्ण है। इसका सीधा अर्थ ये लगाया गया कि भारत को ये कतई ठीक नहीं लग रहा कि कराची के बाद पाकिस्तान एक और उसी तरह के बंदरगाह बनाने में लगा है। जिसमें चीन की एक बड़ी भूमिका है। यहां की स्थानीय बलूच आबादी भी इस बंदरगाह का भारी विरोध कर रही है। क्या भारत किसी तरह की रुची बलूचिस्तान में है। आज सवाल यही उठ रहा है। बलूचिस्तान से सीनेटर सनाउल्लाह बलूच का कहना था कि "हमसे ज्यादा तो परवेज़ मु्शर्रफ और इस्लामाबाद भारत के क़रीब हैं, हम तो काफी दूर हैं। हमारा संघर्ष हमारे लोगों का संघर्ष है। भारत के लिएो सबसे अच्छा मौका तो 1973 में था जब बलूचिस्तान की आज़ादी की मांग अपने चरम पर थी।" सवाल है कि भारत पर सवाल क्यों उठ रहे हैं। पाकिस्तान कहता है कि आफगानिस्तान में भारत के एक दर्जन से ज्यादा सूचना केंद्र हैं जो कई तरह के भ्रम फैला रहा है। नब्ज़ यहीं है। भारत की आफगानिस्तान में बढ़ती भूमिका को लेकर पाकिस्तान खुश नहीं। भारत ही ऐसा देश है जो आफगानिस्तान के विकास में न सिर्फ अपना पसीना और पैसा लगा रहा है बल्कि वो अपना ख़ून भी लगा रहा है। क्या ये भलमनसाहत हमेशा दूष्टता का शिकार होती रहेगी। पाकिस्तान क्यों नहीं अपने गिरेबानं में झांकता है। पंजाब और पंजाबी राजनीति के दबदबे ने बलूचों को कहीं का नहीं छोड़ा। आज ऊंगली भारत पर उठाना सुरॿित निकासी की तलाश तो नहीं। लेकिन, शर्म अल शेख की संयुक्त घोषणा पत्र परेशान तो करती है। लेकिन झूठ तो झूठ होता है। पाकिस्तान चिल्ला चिल्लाकर दावा कर रहा था कि बलुचिस्तान में भारत की भूमिका को लेकर उसने भारत को डोज़ियर दिया है, लेकिन बाद में वो इससे नानुकूर करने लगा। बाद में अमेरिका के विशेष दूत रिचर्ड हाॅलब्रुक ने साफ किया कि ऐसा कोई डोज़ियर कभी दिया ही नहीं गया।...बाकि कहानी अगले पोस्ट में।