18 दिसंबर, 2007

चुप क्यों हैं आप !

क्या बस में कोई कंडक्टर किसी के साथ बदतमीज़ी करता है तो आप हिम्मत नहीं कर पाते कि उसका विरोध किया जा सकें। जब आप देखते रहते हैं और कोई कल तक का तथाकथित गुंडा सफेद कपड़ों में नज़र आने लगता है। आप अपने से सवाल पूछते रह जाते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है। आप किसी नरुलाज़ या मैकनॉनलड में जाकर सैंकड़ों रुपए तुरंत में फूंक देते हैं और कई बार टिप भी देते हैं। लेकिन तिपहिया रिक्शे वाले को आप दो रुपए ज़्यादा देने को तैयार नहीं। ये देख कर और जानते बूझते आप भी ऐसा कर जाते हैं और चुप रह जाते हैं। संसद में हो हंगामा होता रहता है करोड़ो रुपए स्वाहा होते रहते हैं लेकिन आप समझ नहीं पाते कि क्यों है ऐसा। आप तब भी चुप रहते हैं। हम आज चुप हैं ये जानते हुए कि हम विकास के नाम पर एक खाई पैदा कर रहे हैं और इंतज़ार कर रहे हैं कि कभी तो ट्रिकल डाउन होगा। शायद उसके कुछ छींटे उन लोगों पर आ गिरेगें जिनकी संख्या सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 36 करोड़ तक है। असलियत का पता नहीं। लेकिन हम चुप हैं।
मैं ये साफ कर दूं कि इस बार बार लिखे जा रहे आप में सबसे पहले मैं ख़ुद खड़ा हूं। मैं आप सबसे पूछना चाहता हूं ( क्योंकि ये सवाल मैंने खुद से पूछा है कि मैं खु़द क्यों चुप हूं। ) क्या ये हमारी नियती बन गई है ! हम शायद इसलिए भी चुप हैं कि हमें पता नहीं कि बोलने की भाषा क्या है। हमें ये भी पता नहीं कि चुप्पी तोड़ने की कीमत क्या चुकानी पड़ेगी। लेकिन जब छोटे छोटे विद्रोह लगातार दबा दिए जाएं तो होता है एक भयानक विस्फोट। हम क्या उसका इंतज़ार कर रहे हैं ?

08 दिसंबर, 2007

20 करोड़ भूखे !



पिछले 23 नवंबर को लोकसभा में एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव आया कि आख़िर क्यों ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वालों को जो गेहूं मिल रहा है, वो इतना ख़राब है कि जानवरों तक को न खिलाया जा सके। ये प्रस्ताव उन ख़बरों के मद्देनज़र आया जिसमें कहा गया था कि देश के कई इलाकों में बीपीएल परिवारों को जो अनाज ख़ासकर गेहूं मिल रहा है वो काफी ख़राब हालत में है। यहां ध्यान देने वाली बात है कि ये वो गेंहू है जिसे काफी ऊंची कीमत पर विदेशों से आयात किया गया था। पिछले वित्तिय वर्ष में सरकार ने लगभग 55 लाख टन गेहूं का आयात किया था। इस साल भी सरकार ने देश के बाहर से लगभग 13 लाख टन गेंहू आयात का लक्ष्य रखा है जिसमें लगातार गेहूं आ भी रहा है। यहां दो सवाल है कि आख़िर हमें अनाज आयात की ज़रुरत क्यों पड़ रही है जबकि देश में अनाज उत्पादन अपने रिकॉर्ड स्तर पर है। साल 2006-07 के दौरान हमारे देश में खाद्यानों का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ। जो 216 मिलियन टन से भी ज्यादा था।
सरकार का कहना है कि अनाज आयात का उद्देश्य पीडीएस के तहत लोगों तक सस्ता अनाज पहुंचाने के साथ साथ ऐसा बफर स्टॉक बनाना भी है जो आपात हालत में काम आ सके। जन वितरण प्रणाली यानी पीडीएस जो गरीबों को भूखमरी से बचाने के लिए शुरु किया गया था वो आज भ्रष्टाचार का अड्डा बन गया है। नेशनल काउंसिल फॉर अपलायड इकॉनोमिक रिसर्च का एक सर्वे कहता है कि पीडीएस कई मायनों में असंतुलित भी है। सर्वे कहता है कि पीडीएस की 40 फीसदी सक्रियता शहरों तक ही सीमित है।
चिंता की बात ये है कि सरकार गेहूं का भंडारण नहीं कर पा रही है। हालांकि ये अपने आप में बहस का मुद्दा है कि आख़िर इसके पीछे कारण क्या हैं। साल 2006-07 के रबी मौसम के दौरान 5.6 मिलियन टन कम का भंडारण कर पाई।
अंत में सवाल यहीं रह जाता है कि वो देश जहां 20 हज़ार पार करने को सेंसेक्स बेताब है। वहीं भूखमरी और खाद्य सुरक्षा को लेकर गंभीर बहस होती नहीं दिखती।
भूखमरी के शिकार देशों की सूची में भारत 94 वें स्थान पर है। ग़ौर करने वाली बात है कि हम इथियोपिया जैसे देशों से भी पीछे हैं। यहां तक कि ज़िम्बाब्वे, बोलिविया और पाकिस्तान जैसे देशों के लोगों को भारत से ज्यादा खाद्य सुरक्षा हासिल हैं।

07 दिसंबर, 2007

क्यों चाहिए क़रार ?


अमेरिका के साथ न्युक्लियर डील पर हो रहे तमाम हो हंगामें के बीच ये बात जाननी होगी कि आख़िर इस डील की हमें कितनी ज़रुरत है और कितनी नहीं। आज हमारा कुल बिजली उत्पादन है क़रीब 1 लाख 35 हज़ार मेगावाट। ज़रुरत से लगभग 9 फीसदी कम। साल 2020 तक ज़रुरत होगी 4 लाख 50 हज़ार मेगावाट बिजली की। लेकिन न तो हमारे पास इतना कोयला है न ही हाइड्रोपावर उत्पादन बढ़ाकर बिजली की इस कमी को पूरा करने में सक्षम हैं। परमाणु ऊर्जा एक उपाय हो सकता है।
कड़वी बात ये है कि हम अभी तक अपने तय किए लक्ष्य तक ही नहीं पहूंच पाए हैं। परमाणु रियक्टरों से अभी हम 4,120 मेगावाट बिजली पैदा कर रहे हैं। जबकि 10 हज़ार मेगावाट का लक्ष्य हमें 35 साल पहले ही पा लेना था। आगे लक्ष्य है, साल 2020 तक 20 हज़ार मेगावाट परणाणु ऊर्जा का। परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष अनिल काकोदकर का कहना है कि भारत अपनी परमाणु ऊर्जा की परियोजनाओं के ज़रिए बिजली की कमी को पूरा कर सकता है। लेकिन ज़रुरत है कि हम भविष्य को देखते हुए ज्यादा से ज्यादा क्षमता हासिल कर लें। जिसके लिए परमाणु समझौता ज़रुरी होगा। लेकिन सवाल हमारी अभी चल रही परियोजनाओं पर भी है। आज परणाणु बिजली की भागीदारी है मात्र 3-2 फीसदी। अगर यही रफ्तार क़ायम रही तो साल 2020 तक हम उत्पादन कर पाएगें सिर्फ और सिर्फ 14880 मेगावाट परमाण्विक बिजली। यानी 20 हज़ार मेगावाट के लक्ष्य से 5120 मेगावाट पीछे। लेकिन हमारी अपनी परियोजनाएं भी यूरेनियम की मोहताज हैं। हमारे देश में यूरेनियम की भारी कमी है। अमेरिका के साथ परमाणु सहयोग में इस पर ज़ोर दिया गया है कि यूरेनियम की आपूर्ति में कोई रुकावट नहीं होगी।
समझौते के पीछे कारण सिर्फ यहीं नहीं। 123 क़रार की वजह से भारत को तकनीक से वंचित रखने की वह व्यवस्था ख़त्म होगी। जिसे अमेरिका ने 1974 में भारत के पहले परमाणु परीक्षण के बाद लागू कर दिया था। कनफडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज़ के अध्यक्ष सुनील मित्तल का कहना है कि इस समझौते में हमारी जीत है और हमें अनजाने भय के कारण से पीछे नहीं हटना चाहिए। इस क़रार की वजह से 150 अरब डॉलर यानी 6 लाख करोड़ रुपए के निवेश की संभावना है। समझौता नहीं होने से औद्योगिक देशों के साथ भारत के संबंध कमज़ोर पड़ सकते हैं। यानी ये साफ है कि बाद ऊर्जा से कहीं आगे तक जाती है।

06 दिसंबर, 2007

तौबा ये मतवाली चाल !

बंबई स्टॉक एक्सचेंज यानी सेंसेक्स। देश का सबसे पुराना और लोकप्रिय स्टॉक मार्केट। हालांकि नेशनल स्टॉक एक्सचेंज भी है लेकिन पूंजी बाज़ार के बैरोमीटर का दर्जा अगर किसी को मिला है तो वो है सेंसेक्स। 1986 से सेंसेक्स ने पहली बार अलग अलग क्षेत्रों की 30 बड़ी कंपनियों के स्टॉक के साथ संवेदी सूचकांक की शुरुआत की। यहां हालांकि 30 ही कंपनियां है लेकिन फिर भी कुछ ही कंपनियां होती हैं जो पूरे सूचकांक का रुख़ तय करती हैं। सेंसेक्स जब 17 हज़ार से 18 हज़ार अंकों तक पहुंचा तो बढ़त में सिर्फ 5 कंपनियों की 60 फीसदी भागीदारी थी। मुकेश अंबानी वाले रिलायंस समूह का ही उदाहरण लें जिनकी अकेले की बाज़ार पूंजी 2 लाख करोड़ के ज्यादा की है। देश की 30 हज़ार से ज्यादा कंपनियों का भाग्य सेंसेक्स की 30 कंपनियां तय करती दिखती है और उन तीस में से भी कुछ कंपनियां। यानी ये खेल सिर्फ बड़े लोगों का है। साथ ही जब तब कोई हर्षद मेहता कोई केतन पारिख का डर हमें सताता रहता है कि कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं। लेकिन यहां एक सवाल जिस पर गाहे बगाहे चर्चा होती रही है कि 30 कंपनियों वाले सेंसेक्स को लेकर हम इतनी चिंता क्यों दिखाते हैं, क्या सेंसेक्स हमारी पूरी अर्थव्यवस्था का आईना है।
कहा जा रहा है कि अभी तक तो हम अपनी पूरी क्षमता का कुछ ही हिस्सा इस्तेमाल कर पाए हैं। भारत में अभी भी आम आदमी अपनी बचत को शेयर बाज़ार में लगाने से बचता रहा है। साथ ही उम्मीद की जा रही है कि विदेशी निवेश के अलावा बाज़ार में कुछ ऐसे स्रोतों से पैसा आएगा जो अभी तक दूर ही खड़े रहे हैं। जैसे विदेशी पेंशन फंड और बीमा कंपनियां।
अब एक दूसरा पक्ष। ये संवेदी सूचकांक उस देश का है जो मानव विकास सूचकांक में तो 126 देशों से पीछे है, जो भूखमरी के सूचकांक में 118 देशों में से 94 वें स्थान पर खड़ा है। जहां कि पाकिस्तान और इथोपिया जैसे देश भी हमसे बेहतर हालात में हैं। लेकिन हम विदेशी पूंजी को खींचने में काफी आगे है। ये विरोधाभास काफी आगे तक जाता है। सेंसेक्स उस आर्थिक उदारवाद का भी एक परिणाम है जिसने रोज़गार नहीं दिए। जिसने भारत और इंडिया के बीच खाई तो चौड़ा ही किया है। जानकार कहते हैं कि भारत अगले 3-4 सालों तक तेज़ तरक्की करता रहेगा। यानी सेंसेक्स भी फलता फूलता रहेगा, लेकिन अंत में सवाल यही है कि क्या सेंसेक्स पूरे भारत की संवेदना का सूचकांक भी बन पाएगा।

Secularism – Myth or Reality?



Preservation of national unity is the prime concern of every nation state. In the context of Indian society, which is the most diversified of all, this issue has gone a long way influencing the pattern of Indian politics and has a fundamental bearing on our social order.
Keeling in view this diversification, 60 years ago we gave ourselves a constitution imbued with the spirit of secularism. It was felt that the more diversified and complex a society, the more there is a need for a secular public philosophy, which attempts to hold this vast multicultural and myriad society into a single unifying thread. Accepting the principle of ‘Sarwa Dharma Sama Bhava’ or equal respect for all religions, secularism was assumed to act as an ally of nationalism, national integration, communal harmony and would act as a natural deterrent to prejudice based on religion and other such forces which are inimical to democracy and modernisation.
Though we have a secular state we do not have a secular society. This gives us a very sombre picture of Indian life: a picture of a society, which has been witnessing an escalation of religious revivalism, fundamentalism, religio-communal identification shaking the very component of our constitutional ideals.
Paradoxically, secularism has not emerged as a reality of the Indian society and political order. The ascending graph of communal violence, particularly in the wake of the demolition of Masjids, the attack on Christian missionaries, Sikh militancy etc accompanied by the manipulative state policies and exploitation of religion by political parties for their emotive appeal for political and electoral gains has raised serious misgivings about the secular status of India. Dose this signify a demise of secularism?
Never before has the communal virus been so evident in Indian polity, proliferating it’s diseased cell’s as today. This is primarily because of the inability of the government to quell it and to punish all those who incite communal frenzy. No doubt, with the passage of time these problems will assume serious dimensions and will become more complex; ultimately enhancing the divisive and viviparous tendencies constituting a major challenge to our secular edifice.
The need of the hour is to actualise secularism by formulating state policies which are in consonance with it and to find solutions to these perennial communal problems. National greatness lies in eliminating such forces and preventing inter-religious conflicts from tearing the country apart through violence. Most importantly upholding the basic secular credentials not in theory but in practice. Remember secularism is still a dream, which needs to be realised. It will not be a single act, but a prolonged process and requires bold, imaginative and immediate practical steps. Only then can we extricate our society from such forces who have posed over the years the most formidable challenge to our vibrant secular philosophy.
--Teresa N. Anthony