बंबई स्टॉक एक्सचेंज यानी सेंसेक्स। देश का सबसे पुराना और लोकप्रिय स्टॉक मार्केट। हालांकि नेशनल स्टॉक एक्सचेंज भी है लेकिन पूंजी बाज़ार के बैरोमीटर का दर्जा अगर किसी को मिला है तो वो है सेंसेक्स। 1986 से सेंसेक्स ने पहली बार अलग अलग क्षेत्रों की 30 बड़ी कंपनियों के स्टॉक के साथ संवेदी सूचकांक की शुरुआत की। यहां हालांकि 30 ही कंपनियां है लेकिन फिर भी कुछ ही कंपनियां होती हैं जो पूरे सूचकांक का रुख़ तय करती हैं। सेंसेक्स जब 17 हज़ार से 18 हज़ार अंकों तक पहुंचा तो बढ़त में सिर्फ 5 कंपनियों की 60 फीसदी भागीदारी थी। मुकेश अंबानी वाले रिलायंस समूह का ही उदाहरण लें जिनकी अकेले की बाज़ार पूंजी 2 लाख करोड़ के ज्यादा की है। देश की 30 हज़ार से ज्यादा कंपनियों का भाग्य सेंसेक्स की 30 कंपनियां तय करती दिखती है और उन तीस में से भी कुछ कंपनियां। यानी ये खेल सिर्फ बड़े लोगों का है। साथ ही जब तब कोई हर्षद मेहता कोई केतन पारिख का डर हमें सताता रहता है कि कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं। लेकिन यहां एक सवाल जिस पर गाहे बगाहे चर्चा होती रही है कि 30 कंपनियों वाले सेंसेक्स को लेकर हम इतनी चिंता क्यों दिखाते हैं, क्या सेंसेक्स हमारी पूरी अर्थव्यवस्था का आईना है।
कहा जा रहा है कि अभी तक तो हम अपनी पूरी क्षमता का कुछ ही हिस्सा इस्तेमाल कर पाए हैं। भारत में अभी भी आम आदमी अपनी बचत को शेयर बाज़ार में लगाने से बचता रहा है। साथ ही उम्मीद की जा रही है कि विदेशी निवेश के अलावा बाज़ार में कुछ ऐसे स्रोतों से पैसा आएगा जो अभी तक दूर ही खड़े रहे हैं। जैसे विदेशी पेंशन फंड और बीमा कंपनियां।
अब एक दूसरा पक्ष। ये संवेदी सूचकांक उस देश का है जो मानव विकास सूचकांक में तो 126 देशों से पीछे है, जो भूखमरी के सूचकांक में 118 देशों में से 94 वें स्थान पर खड़ा है। जहां कि पाकिस्तान और इथोपिया जैसे देश भी हमसे बेहतर हालात में हैं। लेकिन हम विदेशी पूंजी को खींचने में काफी आगे है। ये विरोधाभास काफी आगे तक जाता है। सेंसेक्स उस आर्थिक उदारवाद का भी एक परिणाम है जिसने रोज़गार नहीं दिए। जिसने भारत और इंडिया के बीच खाई तो चौड़ा ही किया है। जानकार कहते हैं कि भारत अगले 3-4 सालों तक तेज़ तरक्की करता रहेगा। यानी सेंसेक्स भी फलता फूलता रहेगा, लेकिन अंत में सवाल यही है कि क्या सेंसेक्स पूरे भारत की संवेदना का सूचकांक भी बन पाएगा।
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