07 दिसंबर, 2007

क्यों चाहिए क़रार ?


अमेरिका के साथ न्युक्लियर डील पर हो रहे तमाम हो हंगामें के बीच ये बात जाननी होगी कि आख़िर इस डील की हमें कितनी ज़रुरत है और कितनी नहीं। आज हमारा कुल बिजली उत्पादन है क़रीब 1 लाख 35 हज़ार मेगावाट। ज़रुरत से लगभग 9 फीसदी कम। साल 2020 तक ज़रुरत होगी 4 लाख 50 हज़ार मेगावाट बिजली की। लेकिन न तो हमारे पास इतना कोयला है न ही हाइड्रोपावर उत्पादन बढ़ाकर बिजली की इस कमी को पूरा करने में सक्षम हैं। परमाणु ऊर्जा एक उपाय हो सकता है।
कड़वी बात ये है कि हम अभी तक अपने तय किए लक्ष्य तक ही नहीं पहूंच पाए हैं। परमाणु रियक्टरों से अभी हम 4,120 मेगावाट बिजली पैदा कर रहे हैं। जबकि 10 हज़ार मेगावाट का लक्ष्य हमें 35 साल पहले ही पा लेना था। आगे लक्ष्य है, साल 2020 तक 20 हज़ार मेगावाट परणाणु ऊर्जा का। परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष अनिल काकोदकर का कहना है कि भारत अपनी परमाणु ऊर्जा की परियोजनाओं के ज़रिए बिजली की कमी को पूरा कर सकता है। लेकिन ज़रुरत है कि हम भविष्य को देखते हुए ज्यादा से ज्यादा क्षमता हासिल कर लें। जिसके लिए परमाणु समझौता ज़रुरी होगा। लेकिन सवाल हमारी अभी चल रही परियोजनाओं पर भी है। आज परणाणु बिजली की भागीदारी है मात्र 3-2 फीसदी। अगर यही रफ्तार क़ायम रही तो साल 2020 तक हम उत्पादन कर पाएगें सिर्फ और सिर्फ 14880 मेगावाट परमाण्विक बिजली। यानी 20 हज़ार मेगावाट के लक्ष्य से 5120 मेगावाट पीछे। लेकिन हमारी अपनी परियोजनाएं भी यूरेनियम की मोहताज हैं। हमारे देश में यूरेनियम की भारी कमी है। अमेरिका के साथ परमाणु सहयोग में इस पर ज़ोर दिया गया है कि यूरेनियम की आपूर्ति में कोई रुकावट नहीं होगी।
समझौते के पीछे कारण सिर्फ यहीं नहीं। 123 क़रार की वजह से भारत को तकनीक से वंचित रखने की वह व्यवस्था ख़त्म होगी। जिसे अमेरिका ने 1974 में भारत के पहले परमाणु परीक्षण के बाद लागू कर दिया था। कनफडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज़ के अध्यक्ष सुनील मित्तल का कहना है कि इस समझौते में हमारी जीत है और हमें अनजाने भय के कारण से पीछे नहीं हटना चाहिए। इस क़रार की वजह से 150 अरब डॉलर यानी 6 लाख करोड़ रुपए के निवेश की संभावना है। समझौता नहीं होने से औद्योगिक देशों के साथ भारत के संबंध कमज़ोर पड़ सकते हैं। यानी ये साफ है कि बाद ऊर्जा से कहीं आगे तक जाती है।

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